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मित्रकी मूर्तिसें प्रेम.. ॥ इति रानाकी मूत्तिके आगे मुकुद्दमें ।।
॥ अब मित्रको मूर्तिको देखने में प्रेम ॥ - ढूंढनी-पृष्ट ४२ ओ १० सें-हमभी मानते है की-मित्रकी मूर्तिको देखके--प्रेप, जागता है, परंतु यह तो मोह कर्मके रंग है ।। - समीक्ष:-ढूंढनीकी मूढना तो देखो कि,-मित्रकी मूर्तिको देखतो 'प्रेम' जागता है. परंतु जे-बीतगग देव, हमाग परम न. , रन तारन, संमार समुद्रसे पार उतारन, उनकी-मूर्ति, देखके 'प्रेम' न जागे, तो पिछे दूर भव्य बिना, अथवा अभय के पिना, यह लक्षण दूभरेमें कैसे होगे ? हमभी यही समन ते है कि, जिसको संसार भ्रमण, करनेका रहा होगा, उसकीही वीतरागदेव पर बहुत 'प्रेम' न जागेगा. ॥ .
॥ अब मूर्तिको वंदना नही ॥ ढूंढनी-पृष्ट ४३ ओ. ९ से-ऐसेही भगवान्की मूर्तिको देख• के, कोई खुश हो जाय तो हो जाय, परंतु नमस्कार, कौन विद्वान् करेगा. और दाल चावलादि, कौन विद्वान् चढावेगा.॥ - यथा गीत, " चाल" लूचेकी कूक पाडे सुनता नाही, रागरंग क्या । आखो सेती देखे नाही, नाच नृत्य क्या, ॥ ताक थइया ताक थइया ताक थइया क्या, इकेंद्र आगे पंचेंद्री नाचे, यह तमासा क्या, १ । नासिकाके स्वर चाले नाही, धूप दीप क्या। मु. खमें जिव्हा हाले नाही, भोग पान क्या, || ताक थइया २ । परम त्यागी परम वैरागी, हार श्रृंगार क्या । आगमचारी पवनविहारी, ताले जिंदे क्या, ॥ ताक थइया ३ । साधु श्रावक पूजी नाही, देव
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