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सावधाचार्य और ग्रंथोंका विचार. (१४७ ) देवकी मूर्तिकी अवज्ञा करके-कभी तो लीखती है-जड पूजक, और कभी तो-पाषाणोपासक, और सर्व महापुरुषोंका लेख तो-गपौडे, ठहराकर, कहती है कि मैंने निंदा गालियां देना, नहीं स्वीकारा है, सो क्या इतने कहने मात्रसे-इनका भलेपणा हो जायगा ? ॥ फिर लिखती है कि-जूठ बोलनेवाले, और गालियां देनेवालेको, नोच बुद्धिवाला समजती हुँ । अब विचार करो कि-सर्व महा पुरुषों का वचनको-गपौडे गपौडे, कहकर-पुकारा यह तो सब ढूंढनीने सत्यही कहा होगा! और सिद्धांतसे सर्वथा प्रकारसे विपरीतपणे कुछका कुछ लिख मारा, सो भी इस ढूढनीकासत्यपणा ?
और कलि कालमें, शासनके आधार भूत-पहान् २ आचार्योकोहिंसा धर्मी लिखे, सोभी इस दूंढनीकाअमृत वचन ? और गणधर महा पुरुषोंनेभी-सत्रोंमें ठाम ठाम-सैंकडो पृष्टोंपर, एसा लिखा है कि-जिससे ढूंढनीका आत्मीय स्वार्थभी सिद्ध नहीं होता है, सोभी ढूंढनीका-परम सत्य वचन ! इनका साध्वीपणा तो देखो ? । हमकोतो यह मालुम होता है कि-ढूंढनीने, जो बात नहीं करनेकीलिखी है, सोही बात-करकेही दिखलाई है क्योंकि-नतो वीतराग देवकी, परम प्रिय मूर्तिकी-अवज्ञा करनेसें हटती है । नतो गणधरादिक, महा पुरुषोंकी-अवज्ञा करनेसें हटती है ? मात्र कोइ एक प्रकारका उन्मत्तपणा हो जानेसें-बकवादही करती चली जाती है। सोतो हमारा लेखसें, वाचकवर्ग आपही-विचार कर लेवेंगे. हम बारबार-क्या लिखके दिखावेंगे? ॥
॥ इति सावधाचार्य और ग्रंथोंका विचार समाप्तः ॥
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