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संदेह दोलावलीमें-महानिशीथ साक्षी. (१७१ ) भावार्चन, रूप कर्तव्यको छोडके, जो गृहस्थका-द्रव्याचन, रूप जिनमंदिर आदि करवानेको लगजाय, उसका व्रतको घातक हो ता है. । इसवास्ते जिनमंदिरको वनाना-यह साधुको, अप्रशस्त है ॥ और इसी साधुकोही मूर्ति पूजा करनेका निषेध रूप, प्रथम, भद्रबाहु स्वामीजीका-पंचम स्वप्नकाभी पाठ है, देखोकि, चेइयं ठ यावेइ दव्वहारिणो मुणीभविस्सइ ।लोभेन माला रोहण, आदि कहा है ॥ और दूसरा महा निशीथका पाठ है-सोभी, सर्व सावद्य त्यागी साधु है, उनकोही मंदिरादिकका कराना-अनुचितपणे दिखाया है । और तिसरा विवाह चूलिया सूत्रका पाठमेभी, श्रुतधर्म, चारित्रधर्म, का अधिकारी साधु है, उनकाही निषेधपणा किया है, परंतु सर्व श्रावकोके वास्ते जिनपूजाका निषेध पणा तो एकभी पाठमें नहीं है, ।। अब यह हमारी किई हुई समी क्षासे, ढूंढनीजीकाही लिखा हुवा पाठका विचारकरोंकि, हमारे ढूंढकोको जैनमतके एक अक्षरकाभी यथार्थ ज्ञान है ! केवल आप जैन मतसें, और जैन के तत्वस, सर्वथा प्रकारसे मूढ बने हुयें,
औरभी भव्य जीवोको, भ्रष्ट करनेका दुर्ध्यान में ही कालको व्यतीत करते है. । परंतु जो धर्मका अभिलाषी जीव होगा, सोतो हमारी किई हुई समीक्षाको अमृत तुल्य मानके, अवश्य पान करेगा
और जो हठीले बने हुये है, उनकोतो असाध्य रोगके उपर जैसे कोईभी उपचार नहीं लगता है, तैसें यह हमारी किई हुई समीक्षाका, एकभी वचन गुणदायक न होगा। सो तो उनकी भवितव्यत काही मुख्य कारण रहेगा.।
अबीभी इस विषयमें हमको, कहनेकातो बहुत कुछ है, परंतु पाठक वर्गको वाचन करते कंटाला करनेको भयसे, केवल मुख्य बा.
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