Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni
Publisher: Ratanchand Dagdusa Patni

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Page 378
________________ ( ८२ ) वीतरागी मूर्ति विपरिणामें होनेमें दृष्टांत. - और हम अज्ञानांधोंको - सूर्यका प्रकाश सदृश मोक्षमार्गके-भपूर्व को दिखानेवाले होनेसें हमारा परमोपकारी हुये हैं । और हम अघोर संसारके महाभय में पडे हुयेंको, ते तीर्थंकरो सर्वकारका उपद्रव रक्षणकरने वालेही है । परंतु हमलोक अनंत संसार में परिभ्रमण करतेहुये आजतक विपरीत पुरुषोंकी वाणीरूप - पानीका, पान करनेसें - दिवाने बने हुये, तीर्थकर महाराजाओं की अवज्ञा करने में कुछभी विचार नहीं करते आये है । क्योंकि कोई तेसी विपरीत वाणीरूप- पानीका, पानकरनेसें, तीर्थंकरोंके वचनरूप अमृतंका पानको जेर तुलसमजतेथे ? जैसें शीतल पानीका स्पर्शको कोइपुरुष दाहतुल्य समजें, और सोनाको चिज - को पीतल जानके, अंगीकारको न करे ? तैसेंहीहम वीतराग देवकाभी तो १ नामले के भक्तिकरनेकी इछाकरतेथें, और नतो तेओंकी २ मूर्त्तिकभी भक्ति करने की इछा करतेथें, 1 और नतो ते तीर्थकरों की बालकरूप पूर्व अवस्थाकी, और मृतक देहरूप अपर अवस्था की भी - भक्तिकरनेको, देवताओंकीतसं शक्तिको घरावतेथे, तो पिछे साक्षात् रूप ४ तीर्थकरों की भक्ति करने को कहां से भाग्यशाली बनने वाले थें ? इसीवास्ते ही हम-चार गतिरूप संसार में - परिभ्रमण करते फिरतेथें । परंतु जो कदाच हम मनुष्यका भवकोपाके, और जैनधर्मका आश्रयको कभी ते तीर्थकरों की भक्ति चार निक्षेपों का विषय सें, योग्यता प्रमाणे, और हमारी शक्तिके प्रमाणसें । करनेको भाग्यशाली न बनेगें तो हम हमारा कल्याण अनंत संसारका परिभ्रमण करने से भीन कर सकेंगे । इस वास्ते भव्य पुरुषो । यह अमूल्यरूप मनुष्यका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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