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ढूंढकभाइयांका संसारखाता.
(९७)
ग्रंथोनी, केवी त्रासदायक पछेडी औढाडी दीधी छे । पृष्ट. ७० मेंभस्मग्रहना संख्याबंध, भूखथी आकूल व्याकूल थयेला आचार्यो, शा. खनुं शस्त्र बनावी,ते वडे दूनीयानो शिकार करवामां,फतेह पामे-एमां शु आश्चर्य ? । परंतु जेओने अंतर्चक्षु छे, तेमने विचार करवा दो, अने पापखाइमां धक्केली देनार सामे-मानसिक टक्कर, लेवादो।। इत्यादिक जो मनमें आया सोही अतिनिध वचनसें लिख मारा है।
परंतु इस ढूंढकभाइको अंतरके चक्षु खुल्ले करनेकी, और मानसिक टक्कर, लेनेकी, भलामण करके, इहांपर हम एकही बात पुछते है कि-हे भाई ढूंढक ! तूने, और तेरी स्वामिनीजीने-स्थापना निक्षेपका विषयभूत, मूर्ति मात्रको-निरर्थक, और उपयोग बिनाकी, ठहराईथी ? तो पिछे-मिथ्यात्वी यक्षादिक देवोंकी, जडरूप-निरर्थक,पथ्थरकी क्रूर मूर्तिके आगे, तुमने मान्य कीई हुई जो. हिंसा है उसको कराके, पूजा करनेवालोंको-धन, पुत्रादि, प्राप्ति होनका-दिखाती वखते, तुमको कुछ भी विचार न आयाथा ? जो केवल वीतराग देवके परम भक्त श्रावकोंको-हिंसा धर्मी लिख मारते हो ?॥ ___हम तो यही समजते है कि, जैन धर्मका-विपरीत बोध होनेसें, तुम ढूंढको जूठे जूठ लिखते हो । और निर्मल जैन तत्वोंको भ्रष्टपणा करते हो । और अनाथ भव्यजीवोंको-जैन धर्मसें भ्रष्ट करते हो । सोही तुमेरा-संसार खाता, हमको प्रगटपणे ही मालूम होता . है, बाकी दूसरा प्रकारका-संसारखाता, न तो कोई ग्रंथादिकमे, लिखा हुवा देख्या है। ____ और न तो किसी महापुरुषकी पाससे, श्रवण मात्र भी किया हुवा है ॥ किस वास्ते श्रावक धर्मका लोप करके-संसारखाताका, जूठा पोकार उठाते हो ? ॥
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