Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni
Publisher: Ratanchand Dagdusa Patni
View full book text ________________
जिनमतिमा स्थापन - ४स्तवन.
( ९ )
'सूजेरे | पापी क्यूं । १० ।। शुभ अनुबंध निरजरा कारण, द्रव्य पूजाफल दाख्यो । भाव पूजा फल सिद्धिना कारण, वीर जिनेसर भाख्योरे । पापी क्यूं । ११ ।। कुमति मंद मिध्या मंति मुंडो, आग अवलो बोले। जिन प्रतिपासुं, द्वेष धरीने, सूत्र अरथ नहीं खोलेरे । पापी क्यूं । १२ ॥ जे जिन बिंत्र तणम
थापक, कमांहि जावे । जेहने तेह सूं द्वेष थयो ते, किम तस मंदिर आवेरे । पार्थी क्यूं । १३ ॥ सूत्र, निर्युक्ति, भाष्यं, पयन्ने, ठाम ठाम आलावें । जिनपडिया पूजे शुभ भावें, मुक्तितणा - फल पावेरे । पापी क्यूं । १४ ॥ संवेगी गीतारथ मुनिवर, जस विजय हितकारी । सोभाग्य विजय मुनि इणिपरि पभणे, जिंन पूजा सुखकारीरे । प्रापी क्यूं । १५ ।। 11
इति कुमति निकंदन स्तवनं ३ समाप्तं ॥
॥ अथ चिंतामणि पार्श्वजिन ४ स्तवनं ॥
after श्री जिन व जूहारो, आतम परम आधारो रे । भ । श्री। एटेक, जिन प्रतिमा जिनसररवी जाणो, न करो शंका कांई । आगमवाणीने अनुसारें. राखो प्रीत सवाईरें । भ । श्री । १ ॥ जे जिन बिंब स्वरूप न जाणे, ते कहिये किम जाणे | मुलातेह अज्ञानें भरिया, नहीं तिहां तत्त्व पिछाणेरे । भ । श्री । २ || अंबड श्रावक श्रेणिक राजा, रावण प्रमुख अनेक | विविधपरें जिन भक्ति करता, पाया धरमं विवेकरे । भ । श्री । ३ ।। जिन प्रतिमा बहु भगत जीतां होय निश्चय उपगार । परमारथ गुण प्रगटे पूरण, जो जो आद्र कुमाररे । भ । श्री । ४ || जिन प्रतिमा आकारें जलचर, ले बहु जलधि मजार । ते देखी बहुला मछादिक, पाम्या विरति प्रका
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org
Loading... Page Navigation 1 ... 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448