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प्रतिमा मंडन रास.
१पाट संथारे गुरुतणे, बैसंतां आशातना थाय के । ते केहनी आशातना ? कहोने ए अर्थ समजायके । कु. ॥ १७ ॥ उंधी गति मति जेहनी, दीर्घ संसारी जे छे पीडके। समजाया समजे नहीं, जो समजावे श्री महावीरके. । कु. ॥ १८ ॥. 'जिन प्रतिमा जिन अंतरो, कोइ नहीं आगमनी साखीके । तिणही त्यां जिन हीलिये, तिण बंद्यो जिन बंद्यो दाखिके । कु.॥१९॥ जिन प्रतिमा दरसण थकी, प्रति बुज्यो श्री आद्रकुमारके । शय्यंभव श्रुत केवली, दश वैकालिनो करतारके । कु. ॥२०॥ स्वयंभू रमण समुद्रमें, मछ निहाली प्रतिमा रूपके । जाति स्मरण समाकिते, मुरपदवी पामी तेह अनुपके । कु. ॥ २१ ।। रायपसेणी उपांगमें, सूरयाभे पूजा किधके । शक्रस्तवन आगल कह्यो,हित सुख मोक्ष तणा फल लीधके ।कु.||२२॥ छठे अंगे द्रौपदी, विधिसुं पूज्या श्री जिन राजके।। जिन प्रतिमा आगल कह्यो,शक स्तव ते केहने काजके?। कु.॥२३॥
१ प्रतिमाको नहीं मानते हो तो-गुरुके पाटकी, आसनकी आशातनासें गुरुकी आशतना हुइ कैसे मानते हो ? इति प्रश्न ॥
२ देखो सत्यार्थ पृष्ट. १४४ में-महा निशीथ सूत्रका पाठमेंअरिहंताणं, भगवंताणं । का पाठसें-मूर्तियांकाही बोध कराया है । इस वास्ते मूर्तिमें और तीर्थकरोंमें भेद भाव नहीं है । जिसने प्रतिमाकी अवज्ञा कीई उसने तीर्थंकरोंकी ही अवज्ञा करनेका दोष लगता है । वांदे उनको तीर्थंकरोकोही वंदनेका लाभ होता है. ॥
३ द्रौपदीको-नमाथ्\णका पाठ, कामदेवको मूत्तिके आगे, ढूंढनी पढावती है ? ॥ देखो नेत्रांजन प्रथम भाग. पृष्ट. ११० से ११४ तक ॥
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