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(३० )
तीर्थकरोंका दर्शन.
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र, नहीं कर सकते है । जब ऐसा अनुक्रमसें दरजेपर जायेंगे तब तेरेको हम साक्षात्पणे नमस्कार करनेके योग्य होजावेंगे। तब तो हम हमारा आत्मामें ही मनरूप होजायगे । इसी हवास्ते महात्माने कहा है कि - चिदानंद भरपुर, जब हम एसें चडजावेंगे तबही हम हमारा आत्मकि आनंदमें भरपुर मनरूप हो जायगे । तब हमको कोईभी प्रकारका दूसरा साधनकी जरुरत न रहेगी ॥ ३ ॥
अब हम इन महात्माके उद्गारोंका तात्पर्य कहते हे जब हमको साक्षात्पणे- तीर्थंकरोंको, नमस्कार करने की इच्छा होगी, तब हम इस महात्माने जो क्रम दिखलाया है, उस क्रम पूर्वक तीर्थकरों की सेवा करने में - तत्पर होंके, महात्माने दिखाई हुई हदको पहचेंगे, तबही हमारा आत्माको - साक्षात्पणे तीर्थकरों का दर्शन, करा सकेंगे । परंतु पूर्वकी अवस्था में तो इस माहात्मा के कथन मुजब, १नाम स्मरण, २ प्रतिमाका पूजन, और ३तीर्थकरों की स्तुतिओंसें - गुणग्राम करकेही, हम हमारा आत्माको - यत्किंचित् के दरजेपर, चढ़ा सकेंगे । परंतु पूर्वके शुभ निमित्तों मेंसें, एकभी निमित्तका त्याग करके - साक्षात्पणे तीर्थकरों का दर्शन, तीनकालमेंभी न कर सकेंगे ? | क्योंकि जब भी ऋषभदेवादिक-नामों के अक्षरोंमें, तीर्थकरो नहीं है, तोभी हम उनको उच्चारण करके - वंदना, नमस्कार करते ही है । तो पिछे तीर्थकरों का विशेष बोधको कराने वाली तीर्थंकर भगवानकी-मूर्त्तिको, वंदना, नमस्कार, क्यों नहीं करना ? यह तो हमारी मूढताके शिवाय, इसमें कोई भी प्रकार की दूसरी बात नहीं है. ॥ इत्यलंविस्तरेण ||
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