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ढूंदकाईयांका संसारखाता. पुत्रादिक है उनकी-लालच देके, मिथ्यात्वी पूर्ण भद्रादिक यक्षोंकी-कर मूर्ति, पूजानेको तत्पर हुई। और वीरभगवानके, परम श्रावकोंको-किंचित् मात्रका लाभके बिना भी पितर, दादेयां, भूतादिकोंकी-मूर्तियां, षट् कायाका आरंभसें पूजानेको तत्पर हुई। और द्रौपदीजीकी पास-प्रयोजनके बिना ही, कामदेवकी मूर्तिकापूजन, करानेको तत्पर हुई। ... मात्र परम पूज्य तीर्थंकरोंकी मूर्तिके वास्ते कहती है कि-उसमें श्रुतिमात्र भी मत लगाओ । वंदना नमस्कार भी मत. करो।
और वंदना नमस्कार करनेका बतलानेवाले, तीर्थकर, गणधर, तुमको-मतवाल, पिलानेवाले है । इत्यादिक जो जो मनमें पाया, सो ही बकबाद करके, अपना संसारखाताकी वृद्धि करती हुई, भोदू लोकोको भी, यही संसारखाताका ही शब्दको सिखाती है। ___और केवल अपना जो-परमोपकारी, तीर्थकर भगवान है, उनकीही परमशांत मूर्तिका पूजनसें, श्रावकोंको हटाती है। औरजो श्रावकोंके वास्ते तदन अयोग्य पितरादिक, यक्षादिक, मिथ्यावी क्रूर देवताओ है, उनकी मूर्तिका पूजनकी-सिद्धिकरके, दिखलाती है ॥
. . .. - और सर्वपदार्थकी साथ-व्यापक स्वरूप, जो चार निक्षेप, जैन सिद्धांतोमें-सत्य स्वरूपसे कहे गये है, उस विषयका विचारको-परंपराका गुरुके पास पढे बिना, और ते चार निक्षेपके विष यका हेय, झेय, और उपादेयके स्वरूपसें, वस्तुभावका तात्पर्यको, समजे बिना-निरर्थ, और उपयोग बिनाका, लिखके । और गणधरादिक-सर्वमहापुरुषोंकों, गपौडेमारनेवाले ठहरायके, अपना महामृढ पंथकी सिद्धिकरके दिखाती है ?। . .
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