Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni
Publisher: Ratanchand Dagdusa Patni
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पूर्व से पश्चिम दोडनेका विचार.
( १७७ ) कभी न करती ? || और सम्यक्क शल्योद्वार, गप्प दीपिकासमीर के कर्त्ताने तो, तुम ढूंढकोंको, केवल हित शिक्षा के वास्तेही कहा है, परंतु उसबातकी जो रुची तुमको नही हुई है सो तो, तुमेरा आज्ञानपणेकी निशानी है, उसमें कर्त्ताका कुच्छ दोष नही है.
फिर लिखती है कि - भ्राता ! साधु और श्रावक नाम धराकर कुछतो लाज निबाहनी चाहीये ॥ हे ढूंढकों ? तुमको साधुपणेकी, और श्रावकपणेकी लज्जा होती तो, अपना हो महान् महान् पुरुषोंका अपवाद ही क्यौं वकते ? और वीतराग देवकाही - महो त्सव देखके, मारामारीही किस वास्ते करते ? परंतु तुमतो आप ही जैनधर्मसे - विपरीत होके और दूसरांको भी विपरीत करने की चाहना कर रहे हो, तुमको साधु, और श्रावक, पणेकी लज्जाही कहां रही है ? जो अपना साधुपणा दिखाते हो ? | हां कभी, कृष्णका, महा देवका, पीरका, फकीरका, महोत्सव होवें, जब तो तुम राजी, और वीतरागदेवका - महोत्सव देखते ही तुमेरा हृदय फिरजाय, तो पिछे तुम अपने आप साधु, और श्रावकपणा ही कैसे प्रगट करते हो ? तुमतो केवल साधु, और श्रावकका आभास रूप बने हुये हो.
॥ और नीचे लिखती है कि जूठ बोलना, और गालियां देना, सदैव बुरा माना है, ॥
|| अगर जो तुमको इतना ज्ञान होता तो, यह केवल जूटका ही पूँजरूप, थोथा पोथा लिखनेकी प्रवृत्ति ही क्यों करते ? तुमेरा ढूंढक पंथ में जूठ बिना तो दूसरी गति ही नही है ! तुमेरा कितना जूठपणा है, सो तुमको देखनेकी इछा होती होवें तो, देखो समकित सारका, उत्तररूप सम्यक्क शल्योद्धार " जिससे तुमको मालूम हो जावें.
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