________________
(228) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बाबनी.
1
तात्पर्य - सत्यार्थ. पृ. १२९ से १४० तक में, ढूंढनीजीनेपूर्व के महान् २ सर्व जैनाचार्योंकी, और उनके बनाये हुये सब ग्रंथोंकी, पेट भरकेही निंदा किई हुई है ! कभी तो लिखती है किसावद्या चार्य । कभी तो लिखती है कि-भोले लोकोंको बहका कर, माल खानेको मन मानें गपौडे लिखके धरने वाले । कभी तो लिखती है कि - उत्तम दया, क्षमा रूप, धर्मको हानि पहुंचाने वाले । कमी तो लिखती है कि- अन घटित कहानियेसें- पोथेको भरनेवाले । कभी तो लिखती है कि- जड पदार्थमें, परमेश्वरकी - बुद्धिको क रानेवाले | इत्यादिक जैसा मनमें आया, तैसें ही निंदा करती हुई चली गई है || ४२ ॥ और -निर्युक्तिभी, ढूंढनी अपने आप बन बैठी । और भाष्य है सोभी ढूंढनींही अपने आप बन बैठी । और टीका सोभी, ढूंढनीजी कहती है कि- मैं हूं, ऐसा लिखके अपना गर्वको हृदयमें नहीं धारण कर सकती हुई, सत्यार्थकी जाहीरातमें प्रगटपणे लिखके दिखाती हैं कि - पीतांबर धारियों के, नवीन मार्गका मूल सूत्रों, माननीय जैन ऋषियोंके मंतव्यो, तथा प्रबल युक्तियोंसें - खंडन किया है । और युक्तियें भी ऐसी प्रबल दीहैं कि - जिनको जैन धर्मरूद, नवीन मतावलंबियों के सिवाय, अन्य सांप्रदायिकभी - खंडन नहीं कर सकते । वरंच बडे २ बिद्वानोंनेभी, श्लाघा ( प्रसंसा ) की है । इस पुस्तक विशेष करके, श्री आत्माराम आनंद विजय संवेगी कृत - जैन मार्ग प्रदर्शक, नवीन कपोल कल्पित ग्रंथोकी - आंदोलना की है ।
1
इसका विशेष विचार प्रस्तावना मेंसें देख लेना । इहांपर हम विशेष कुछ नहीं लिखते है |
परंतु जैन तत्वरूप अगाध समुद्रका मार्गकी दिशा मात्र काभी श्रवण किये बिना, इस ढूंढनी जीने, एक गंदी खालकी भेडी (देडकी)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org