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(२३६) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी.
(१३) पृ. ५७ में-आकार, वा नाम, धरके, उसको-वंदने, पूजनेसें-लाभ नहीं होवे । एसा लिखके, ए. ७३ में, पूर्णभद्रादिकोंका-आकार, और नामसे-धन पुत्रादिकका लाभ होनेका, दिखाया ? । और ट. ९८ में, काम देवका--आकार, और नामसे द्रौपदीजीको, वरका लाभ दिवानेको तत्पर हुई ? । क्या यह तुमेरे ढूंढकोंका जूठ नहीं है ? ॥१३॥
(१४) पृ. ६९ में-सम्यक् दृष्टि, मिथ्या दृष्टि, यह दोनों प्र. कारका देवताओंकी पास, शाश्वतीजिन प्रतिमाओंको, व्यवहारिक कर्तब्यसें पूजाई । और पृ. ७० में, उबाई सूत्रसें-महावीर स्वामीजीके, चुंचुवेका वर्णन विना, शिखासें नखतकका वर्णन कबूल किया । और राय प्रश्नोजीसें, जिन पडिमाका-दाढी मुछ के बिना, नखसे शिखा तकका, वर्णन तूने दिखा, तोभी पृ. ६७ में, ढूंढनीजी लिखती है कि-सूत्रोंमें तो-मूर्तिपूजा, कहीं नहीं लिखी है। यदि लिखी है तो हमें भी दिखाओ? क्या ढूंढनीजीका यह लिखना जूठ नहीं है ? ॥ १४ ॥
(१५) पृ. ६१ में-मूर्तिपूजा, पंडीतासें तो ढूंढनीजीने ही सुनी, और शास्त्रोमें भी लिखी हुई देखी, तोभी पृ. १४२ में, लिखती है कि-सूत्रोंमें, मूर्तिपूजाका-जिकरही नहीं । परंतु इतना मात्रसें भी, संतोषको नहीं होती हुई, उलटपणे ते मूर्ति पू. जाके पाठीका अर्थ, जूठे जूठ लिखके-निषेध करनेको, तत्पर - १ देखो, सत्यार्थ. पृ. १९ में, ढूंढनीजी,मूर्तिमें-नाम निक्षेप मान्य करकें, पिछेसें हमारी पासभी-मान्य करानेको तत्पर हुई है ? मूर्ति भी चारों निक्षेपकी मान्यताके अभिप्रायसेंही, ढूंढनीजीने यह लेख लिखा है ॥
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