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(१४) चार निक्षेप - सार्थकता निरर्थकताका- विचार.
अपना संपूर्ण गुण दोष प्राप्तिकी - पूर्व अपर अवस्थाका स्वरूप, अर्थात् कारणरूप द्रव्य ३ | और ते पदार्थका साक्षात्कार स्वरूप भाव ४ | [ अर्थात् साक्षात् स्वरूप पदार्थ ] है सो, अपना अपना स्वरूपका - पिछान कराणेमें, अर्थात् ते चार प्रकार, निज निज स्वरूपका पिछान कराणेमें ] परम उपयोगी स्वरूपके ही है। इसी कारणसें जैन सिद्धांतकारोने - ते चारो प्रकारको चार निक्षेपकी, संज्ञा - वर्णन करके, दिखलाये है। उनका विचार - श्री अनुयोगद्वार सूत्र में, महागंभीर आशयवाले गणधर महाराजाओने - सूचना तरीके दिखलाया हुवा है । परंतु गुरुज्ञान विनाकी ढूंढनी पार्वतीजीने- गणधर महाराजाओंका आशयको, समजे विना, प्रथमके-त्रण निक्षेप, निरर्थक, और उपयोग विनाके, क्यों कि कार्य साधक नहीं ऐसा जूठा हेतु के साथ - विपरीतपणे, लिख दिखाया है । और यह ढूंढनी जग जगें विपरीतपणा करके - जैन धर्मके मूल
बोका, नाश करणेको, प्रवृत हुई है । जबसे हमारे ढुंढकोने - यह पंथ पकड़ा है, तबसें जो कुछ जैन तत्वके विषयमें उनको दि खा है सो विभंग ज्ञानियोंकी तरह — विपरीत ही विपरीत, दिखता है | परंतु हम भार देके कहेते है कि जो वस्तुका [ अर्थात् पदार्थका ] चार निक्षेप है, उसमेंसे - एकभी निक्षेप, निरर्थक, अथवा उपयोग विनाका, नहीं है। किंतु कार्य साधकमें - परम उपयोगी स्वरूपके ही है ॥
क्यों कि जिस पदार्थका [ अर्थात् वस्तुका ] अपनेको पिछान करनेकी इछा होगी, उस वस्तुका प्रथम नामसें ही पिछान करने की जरुर पडेगी, इसी - नामको, शास्त्रकारोंने-नाम निक्षेपके स्वरूप माना है १ ॥
और उस पदार्थका विशेष ज्ञानकी प्राप्तिकी इछा - उनकी
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