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( ६४ ) ढूंढनीजीका -२ स्थापना निक्षेप,
स्सेसाए अनुगामित्ताए भविस्सइ । के पाठ से प्रगटपणे, दिखाया हुवा है ||
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और द्रौपदीजीने भी इसी ही, फलकी- पाप्ति के वास्ते- जिन प्रतिमाको पूजी है । इस लिये ही सूर्याभ देवकी, उनमा दीई है ॥
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परंतु - वीर भगवानके, परम श्रावकोंको- दररोजकी सेवामें पितरादिकों की मूर्तिपूजा करनेका पाठ, किसी भी जैनाचार्यने-लिखके, दिखाया हुवा नहीं है ।
तैसेही श्वेतांबर, दिगंबर, संप्रदाय के लाखो श्रावको मेंसें, किसी भी श्रावककी— प्रवृत्ति होती हुई, देखने में नहीं आती है। तो पिछे यह ढूंढनीजी ते परम श्रावकों की पाससें – पितरादिक, मिथ्यात्वी देवोंकी - मूर्तियां, दररोज - किस हेतुसें, पूजाती है ? । क्योंकि जो परम श्रावको होते है सो, तो, जिनेश्वर देवकी - मूर्त्तिके बिना, किसीको - नमस्कार मात्र भी, करनेकी - इच्छा, नहीं रखते है । देखो सत्यार्थ पृष्ट. ४५ में - प्रमाण, ढूंढनीजीने ही लिखा है कि--वज्रकरणने, अंगूठीमें-मूर्ति, कराई ॥
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इस लेखसें – ख्याल करोंकि, परम सम्यक्क धर्मका - पालन, करता हुवा वज्रकरण राजा, अपना स्वामी राजाको भी नमस्कार करनेकी वखतें, अंगूठी में रखी हुई वारमा तीर्थंकर श्री वासुपूज्य स्वामीको मूर्त्तिका ही — दर्शन करता रहा । परंतु ते सिंहोदर नामका स्वामी राजाको भी, नमस्कार - नहीं किया । तो पिछे - वीर भगवान के ही ते परम श्रावको - पितरादिक, मिथ्यात्वी देवोंकी - मूर्तिपूजा, दररोज – कैसें करेंगे ! ॥
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बीतरागी मूर्ति के साथ ढूंढनीजीकी घिठाई तो देखा कि एक
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