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ढूंढनीजीका-३द्रव्य निक्षेप (७१) परंतु अपनी अपनी योग्यता मुजब, सर्व वस्तुका-चार चार निक्षेप, सार्थक रूप ही मानते है, उसमें भी-परमोपादेय, वस्तुके तो-चारो निक्षेपको, परमोपादेयसें ही मानते है । परंतु-चार निक्षेप,कोइ भी प्रकारस-निरर्थक स्वरूपका,नहीं है।
इत्यलं विस्तरेण ॥
सा
॥ अब ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणे पार्वतीका-चतुर्थ-भाव निक्षेपका, स्वरूप लिखते है ॥ .
देख भाई ढूंढक-साक्षात् स्वरूपसें, प्रगटपणे-१ शिव पार्वतीजी । २ वेश्या पार्वती । और ३ ढूंढनी पार्वतीजी । विद्यमान होवे तब ही ते-त्रणे वस्तुओ, अपना अपना स्वरूपसें भाव निक्षेपका, विषय स्वरूपकी, कही जाती है।
परंतु १ शिवभक्त है सो तो, शिव पार्वतीजीको ही-देखता हुवा, भक्तिके वस होके-मोहित, हो जायगा १ । २ कामी पुरुष है सो तो, वेश्या पार्वतीको ही-देखता हुवा कामके वस होके-मो. हित, हो जायगा २ । तैसें ही ३ ढूंढक मतका भक्तको, ढूंढनी पार्वतीजीको ही-देखके, भक्तिके वस होके मोहित, होना ही चाहिये ? ३ ॥
क्योंकि-१ शिवभक्तथा सो-पार्वतीजी, ऐसा-नाम मात्रका, उच्चारण करता हुवा । अथवा किसीसें-श्रवण करता हुवाभी, अ. पनी श्रुति, शिवपावनीजीकी तरफही-लगाता हुवा, बंदना, नमस्कार करके अपना आत्मानंदमें, मनरूपही, होजाताथा १। और विशेष प्रकारसें-बोधको करानेवाली, शिवपार्वतीजीकी-मूर्तिको, देखके तो बडाही हर्षित होके, अपना-मस्तकको, झुकावा हुवा, और
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