Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni
Publisher: Ratanchand Dagdusa Patni

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Page 366
________________ (७४) ढूंढनीजीका - ४भाव निक्षेप. क्त, कहे जायेंगेकि - सर्वथा प्रकार, विपरीत विचारवाले कहे जाबेंगे ? । सो हमारा, और ढूंढनी पार्वतीजीका-लेखको, मिलाकरके विचार, करलेना । यहतो ढूंढनीजीके- स्थापना निक्षेपका, बिचार हुवा ॥ २ ॥ • अब ढूंढनी पार्वतीजीका तिसरा द्रव्य निक्षेप, देखोकि-निदोषरूप, दीक्षा लेनेकी - पूर्व अवस्थाको, शीलभंगादिकका कोई पुरुष जूठा ही, कळंक - दे देवे । और निर्मल चारित्रका पालन किये बाद, गत प्राणका शरीरकी-मिट्टीका, खराबा करनेकी - प्रवृत्ति, कोई पुरुष करेगा तो, क्या उनके भक्त जनोंका - चित्तको, खेद, उत्पन्न-न होगा ? | अथवा ते पूर्व अवस्था से हर्ष, और अपर अवस्थासें-दिलगीरीपणा, उनके भक्त जनोंकों न होगा ? । जब ते - द्रव्य निक्षेपका विषयवाली, दोनो प्रकारकी - अवस्था, हर्ष, या दिलगीरी, . उत्पन्न होती है, तो पिछे - यह द्रव्य निक्षेप, उनके भक्त जनों को सार्थक हुवा कि निरर्थक ? । जब ढूंढनी पार्वतीजीका द्रव्य निक्षेप, सार्थक – मानके, सर्व प्रकारका दावा करनेको, तत्पर हो जाते हो, तो पिछे जिस तीर्थंकर भगवानका नाम मात्रसें भी अवज्ञाको, सहन नहीं करते हुयें हम, हमारा - कल्याण मानते है, उनकी पूर्व अपर अवस्थाको, उपयोग बिनाकी – कह करके, तुछ बस्तुकीतरां निरर्थक, ठहरानेवाले हम, तीर्थंकरोंके भक्त कहे जायेंगे कि, वैरी कहे जायेंगे ? उनका विचार, तीर्थंकराके भक्तोको ही करनेका है ।। अब हम फिर भी किंचित् - तात्पर्य कह करके, इस लेख की समाप्ति करते है । " तात्पर्य यह है कि – जिस जिस पुरुषोंने, जो जो वस्तु, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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