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ढूंढनीजीका - २स्थापना निक्षेप.
(६५)
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जगेंपर तो — ते परम श्रावकोंको, मिथ्यात्वी पितरादिकों की-- मूर्त्तिको, दररोज, पूजाती है । और सत्यार्थ पुष्ट. ७३ में - धन, पुत्रादिककी लालच देके, स्वार्थकी सिद्धि होनेका दिखाती हुई, यक्षादिकों की भीमूर्तिको पूजाती है। और सत्यार्थ पृष्ठ. ६० में लिखती है कि-मूर्त्तिको घरके, उसमें श्रुति, लगानी नहीं चाहिये । कैसी २ अपूर्वचातुरी, करके, दिखलाती है। उसका विचार, पाठकवर्ग- आप ही, करलेवेंगे | हम वारंवार क्या लिखके दिखायेंगे ?
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फिर भी देखो — शत्यार्थ पृष्ठ. ३४ ओली ३ सें, ढूंढनीजीनेलिखा है कि- स्त्रीकी मूर्तियांको, देखके तो — सबी कामियांका, काम - जागता, होगा ।
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और पृष्ट. ४२ ओ. १० से. लिखा है कि- हां हां हम भी मानते है कि मित्रकी, मूर्तिको — देखके, प्रेम, जागता है । यदि उसी मित्रसे - लड पडे तो, उसी - मूर्त्तिको, देखके—क्रोध, जागता है ।
इस लेख से - हमको विचार, यह आता है कि - मित्रता रखें जब तक तो - मित्रकी, मूत्ति-प्रेम, और-लड पडे तो, उसी ही, मूर्त्तिसें द्वेष, तो क्या - हमारे ढूंढक भाइयो, महा मिथ्यात्वके साथ - गाढ मीति करके, ते परम श्रावकों के दररोजके कर्त्तव्यमें, मिध्यात्वी- पितर, दादेयां, भूतादिकका मूर्त्ति पूजन । और तैसें ही धन पुत्रादिककी लालच दिखाके भी, मिथ्यात्वी काम देवादिक, और पूर्णभद्र यक्षादिक-देवोंकी, मूर्त्तिका - पूजन करानेको उद्यत हुये होंगे ?
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ऐसा अनुमान, हर किसीके - हृदयमें भी, आये बिना न रहेगा, क्यौं कि -समतिकी प्राप्तिका - हेतु भूत, तीर्थंकरोंकी - भक्ति सें, दूर होके, और - गुप्तपणे, तीर्थंकरों के साथ, हृदयमें द्वेषको, धारण
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