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ढूंढनीजीका - २स्थापना निक्षेप.
(६७)
रमं श्रावकों के नित्य कर्त्तव्यमें तीर्थंकरोंकी - भक्ति करनेका, छुड वायके ते परम श्रावकों की पाससें भी, दररोज पितरादिकों की ही मूर्ति, पूजाई है ।
अगर जो तूं जैन सिद्धांतकारोंके, कहने मुजब -शुद्ध जैन ध र्मकी प्राप्तिकी इछासे, चलने का इरादा, करेगा, तबतो सिद्धांतका रोने-दिखाई हुई, तीर्थंकरोंकी - भक्तिपूर्वक मूर्तिपूजासँ, तूं तेरा भवोभवका - हितकी ही, प्राप्ति कर लेवेगा ।
क्यों कि जैन ग्रंथकारोंने तो ते परम श्रावकोंकी, दररोज की -- पूजायें, तीर्थकरों की ही पूर्तिपूजा, कही हुई है।
चाहें तो तूं तेरी स्वामिनीजीका, सत्यार्थ पृष्ट. १२६ में से-अपने आप विचार करले, तेरेको यथा योग्य - मालूम हो जायगा ॥ फिर भी - सत्यार्थ पृष्ट ३४ का लेखसें, रूपाल करोकि, काम विकारी स्त्रीकी, मूर्तिको देखनेसें, कामी पुरुषोंको काम, जागे । एसा ढूंढनीजी ने लिखा ॥
तो अब जो - मिथ्यात्वी लोको होंगे, उन्होको ही मिध्यात्वी पितर, दादेयां, यक्षादिक - देवोंको, मूर्त्तियांको देखनेसे, प्रेम उत्पन्न होनेका । और उनकी मूर्तियांको-पूजन करनेकी - सिद्धि, करने - का - नियम, स्वभाविकपणे ही लागु, पडेगा ||
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और — जिस भव्यात्मको, महा मिथ्यात्वका-उपशम, हुवा होगा, और समकितकी प्राप्ति - कर लेनेकी, अभिरुची उत्पन्न हुई होगी, एसा निर्मल शांत चित्त वृत्ति वाला - भव्यात्माकोतो, जगतका उद्धार करने वाले - तीर्थकरोंकी, परम शांत मूर्त्तिको, देखतेकी साथ ही हृदय में से अमृतरसका जरणा झरेगा ? इसमें कोई भी प्रकार शंकाका स्थान नहीं है ||
अब आगे पाठक गणको, अधिक वाचनका कंटाळा, हठाता
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