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(६२) ढूंढनीजीका-२स्थापना निक्षेप. ___ और-चमरेंद्र के, विषयमें इसही-अरिहंत चेइय, का अर्थ- अरिहंत पद, करके दिखलाया है।
हमको विचार यही आता है कि-वीतराग देवकी, मूर्तियांहजारो वर्षांसे, जग जाहिरपणे-दिख रहीयां है, और जैन सिद्धांतोंमें-जगे जगे पर, उनकी सिद्धिका, पाठ भी-लिखा गया है, तो भी-विशेष धर्मको, ढूंढनेवाले-हमारे ढूंढक भाईओ, अपना ही तरण तारण तीर्थंकरोंकी, मूर्तियां के वैरी, बनके, सनातन धर्मका-शिखर पर, वैठनेको जाते है। परंतु हम उनोंको-तीर्थकरोंके, भक्त मात्र ही-किस प्रकारसें, गिनेंगे ? ॥
॥ तर्क अनी, सत्यार्थ पृष्ट. ११८ में हमारी ढूंढनीजीने, मूर्तिपूजनमें-षट् काया रंभका, दोष,दिखाके-पृष्ट. १२०में-लिखा है कि-दूसरा बडा दोष-मिथ्यात्वका, है, उसमें हेतु यह दिखाया है कि-जडको, चेतन मानके, मस्तक-जुकाना, मिथ्या है ॥
इस लेखसें हमारी ढूंढनीजीने, यह सिद्ध करके-दिखलाया है, कि-श्रावकों को कोई भी प्रकारकी मूर्तिपूजा करनी सो बडामिथ्यात्व है, और षट् कायारंभका-कारण, होनेसें, हम विशेष धर्मकी ढूंढ करनेवाले-ढूंढक धर्मी श्रावक है सो, कोई भी प्रकारकी मूर्तिकी पूजा करें तो-संसारमें, डुब जावें, क्यों कि-मिथ्यात्व है सो संसारमें डुबाता है इस वास्ते हम ढूंढको जिन मूर्तिकी-पूजा भी, नहीं करते है ।। __इसमें हमारा-विचार, यह है कि-चीतरागी मूर्तिकी-पूजा करनी, सोतो तीर्थकरोंकी-भक्तिके वास्ते है । और इस प्रकारसें-भक्ति करनेका, गणधरादिक महा पुरुषोंने-जगे जगेंपर लिखके भी दिखाया है।
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