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ढूंढनीजीका - २स्थापना निक्षेप.
कोतो, ते परम श्रावकोने ही बनाये होंगे । और उसमें — स्थापित कीई हुई, जिन मूर्त्तिकी पूजा - फल, फूलादिकसें, ते परम श्रावकोने ही — किई होंगी । तोपिछे ढूंढनीजीको वीतराग देवसे, क्योंवैरभाव, हो गया । जो जर्गे जगें विपरीत- अर्थ, करके आप वीतराग देवकी, भक्ति-भ्रष्ट होती हुई, थावकों को भी तीर्थक की भक्तिका लाभ -भ्रष्ट करनेका, उद्यम कर रही है ?
मेरा इसलेखपर, भोले श्रावकोंको शंका उत्पन्न होगी कि - ढूंढatter लेखमें, एक दो जगें पर ही- फरक, मालूम होता है। तोपि - छे जगें जर्गे पर - पिवरीत है, ऐसा किस हेतुसे लिखदिखाया होगा । इसबात की शंका दूर होनेके लिये, कितनीक सूचनाओ, क रके दिखाता हूं, सो इस नेत्रांजनका, प्रथमके भागतें-विचार, करलेना ! हम विशेष विचार न लिखेंगे ||
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फिरभी देखो सत्यार्थ पृष्ठ. ८७ ८८ में आनंद श्रावक के अधिकारमें ही अरिहंत वेइय, के पाठसें जिनमूर्त्तिका अर्थको लोप करनेका प्रयत्न किया है। देखो इसकी समीक्षा- नेत्रांजनका, पृष्ट. १०८ । १०९ में ।।
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पुनः देखो सत्यार्थ पृष्ट १०३।१०६ तक जंघाचाराणादि मुनिओ, नंदीश्वरादिक द्वीपोंमें, और इस भरत क्षेत्रमें भी शाश्वती, तथा अशास्वती, जिन प्रतिओंको - वंदना, नमस्कार, करनेको - फिरते है, उहां - चेइयाई वंदइ, नमस्सइ, के पाठसें, जिन मूर्त्तिको वंदना, नमस्कार करने का सिद्धरूप, अर्थको छोड करके उहां नंदीश्वर द्वीपादिक ज्ञानका ढेरकी, स्तुति, करनेका - अर्थ, करके दिखलाती है । देखो इनकी समीक्षा- नेत्रांजनके प्रथम भागका पृष्ट. ११७ सें १२१ तक, क्योंकि -मुनियोंको भी, जिन मूर्त्तिको
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