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ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२स्थापना निक्षेप. ( ३७ ) विचारसें, उपादेयकी-मूर्ति हैसो, उपादेयपणे-सिद्ध होती है या नहीं ? पिछे-परमोपदेय तीर्थकरोंकी मूर्ति है सो, परमोपादेय रूप, अपने आप-सिद्ध, हो जायगी ।।
देखोकि-शिवका भक्त थासो तो, अपना-उपादेय संबंधिनी, शिव पार्वतीजीकी-मूर्तिको, देखतेकी साथ, परम प्रीति को धारण करता हुवा-बड़ा हर्षित हुवा था ॥ __ और काम विकारसे भरी हुई-हेय वस्तु संबंधिनी, वेश्या पार्वतीकी-मूर्तिको, देखके-बडा दिलगिर हुवा था ॥
और मुख उपर पड्डीवाली, ढूंढनी पार्वतीजीकी-ज्ञेय वस्तु संबंधिनी-मूर्तिको, देखके, नतो-हर्षित हुवा था, और नतो-दिलगिरभी हुवा था, मात्र नवीन प्रकारका स्वरूपकी-आकृति, समजता हुवा, टगटगपणे देखता ही रहाथा ॥
॥ अब दूसरा-कामी पुरुषथा सो, शिवपार्वतीजीकी-मूर्तिको, देखके, और ढूंढनी पार्वतीजीकी-मूर्तिको, देखके, मात्र ज्ञेय वस्तु रूपका-स्वरूपको जानके, नतो-हर्षित हुवाथा, और नतो कुछ दिलगीरभी हुवाथा, परंतु काम विकारकी-पेटीरूप, वेश्या पार्वती की-मूर्तिको, देखके, और अपना-उपादेय वस्तु संबंधिनी, जानके, परम प्रीतिकी साथ, अंग प्रत्यंगको वारंवार देखता हुवा, और अपना शरीरकी रोम. राजिको-विकश्वर, करता हुवा, कितनीक देरतक, देखनेमें मसगूलही बन रहाथा, क्योंकि उस कामी पुरुषको, जो कुछ-उपादेय वस्तुथी सोतो, एक वेश्या पार्वतीहीथी। इस वास्ते उनकी-मूर्तिको, देखके भी, उसमें ही उनको मनरूप होना युक्ति युक्त ही था । परंतु हे ढूंढक भाई !
अब तेरेको ही हम पुछते है कि, एकतो है-शिव पार्वतिजीकी
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