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ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२ स्थापना निक्षेप. (४७) और स्थापना निक्षेपकोभी, योग्यता मुजब--आदर, और सत्कार ही कर रहा है । परंतु मूढताको प्रगट नहीं करता है । यही विशेष पणा दिख रहा है।
॥ फिर भी देखो-सत्यार्थ-पृष्ट. १२२ ओ. १२ से-ढूंढनीजी लिखती है कि भगवती शतक १२ मा, उद्देशा २ में-जयंती समणो पासका, अपनी भौजाई मृगावतीसें कहती भई कि-महावीर स्वामीजीका-नाम, गोत्र, सुणनेसे ही-महाफल है । तो प्रत्यक्ष सेवा भक्ति करनेका जो फल है सो-क्या वर्णन करूं । और भी पाठ ऐसे बहुत जगह आता है ॥
ढूंढनीजीका इस लेखसें, ख्याल करनेका यह है कि-नाम-और गोत्र, एक प्रकारका होके भी-अनेक पुरुषोंमें, दाखल हुयेला देखनेमें आता है, तो भी भगवानके साथ संबंधवाला-नाम, और गोत्र, जडरूप अक्षरोंके आकारका, दूसरेके मुखसें प्रकाशमान हु. येला, श्रवणद्वारा-सुनने मात्रसें, भक्त जनोंकों-महाफलको प्राप्त करता है । ऐसा जैन सिद्धांतोसे सिद्ध है । तो पीछे वीतराग देवके ही सदृश्य, और अन्य वस्तुओंसें अमिलित, ऐसी अलोकिकवीतरागी मूर्तिको, नेत्रोंसे साक्षातपणे देखते हुये, हमारे ढूंढकभाईयांको-आल्हादितपणा क्यों नहीं होता है ? क्या तीर्थंकरोंकी भक्तिभावका बीज, उनोंके हृदयसें-नष्ट हो गया है ?।
क्योंकि जो तीर्थंकरोंके-भक्त होंगे, सोही तीर्थकरोके साथ संबंध वाला-नाम, और गोत्र रूप अक्षरोंको, कर्णद्वारा श्रवण करनेसेंअल्हादित हो केही, महा फलको प्राप्त करलेवेगा । तो पीछे नेत्र द्वारा-तादृश भगवान्की भव्य मूर्तिका, दर्शनको करता हुवा, सोभ व्यात्माभक्त-आल्हादित होके, महाफलकी प्राप्ति क्यों न कर ले
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