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ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२स्थापना निक्षेप. (४९) हाय २ इंद्रजित, हाय इंद्रजित, कहके रोता है, परंतु राजाने-बुरा, नहीं माना । ताते-नामतो, गुणा कर्षणही होता है, सो-भाव निक्षेपमें ही है ॥
मूर्तिपूजक--हे भाई ढंढक,थोडासा ख्याल करके देखकि-जो -नाम,अनेक वस्तुओंके साथ संबंधवाला होजाता है,उस नामके-- दो चार अक्षर मात्रमें तो, ढूंढनोजीको साक्षात् पणे-तीर्थकर भगवान् ,दिख पडता है। और वह-दो चार अक्षरमात्रको,अपना मुखसें उच्चारण करने मात्रसें-वंदना, नमस्कारादिक भी, करना मानती है तो पिछे-नामसें भी, विशेष पणे बोधको करानेवाली-वीतरागी मूत्तिमें, तीर्थकर भगवान्, हमारे ढूंढक भाईयांको-किस कारणसें नहि दिखता है ? क्यों कि जो मिथ्यात्वी लोको है सो भी, तीर्थ करोंके-नामको सुननेसें, तीर्थंकरोंकी-मूर्तिको देखनेसें, विशेषपणे ही तीर्थंकरोंका-वोधको, प्राप्त होते है । तो पिछे हमारा ढूंढक भाईयांको, तीर्थकरोंकी-अलोकिक मूर्तिको देखनेसे भी, तीर्थकरोंका बोध नहीं होता है, इसमें क्या कारण समजना ? उसका विचार करनेका तो-वाचक वर्गको ही दे देता हुं ॥ ___ ढूंढक हे भाई मूर्तिपूजक, हमलोक-ढूंढक साधुओंकी, और साध्वायांकी-मूर्तियांको, खिचवायके घरमें रखते है, यह बात तेरी सत्य है, परंतु उस मूर्तियांको-वंदना, नस्कार तो-कभीभी नहीं करते है, तो पिछे-ऋषभादिक, तीर्थंकरोंकी-पूर्तियांको, वंदना, नमस्कार, किस प्रकारसे करें ?
मूर्तिपूजक-हे भाई ढूंढक-जिस २ ढूंढक साधुको, जिस २ ढूंढक श्रावकोंने-अपना २ गुरुपणे मान लिया है, सो सो ढूंढक
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