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(४० ) ढूंढक भक्ताश्रित-त्रणें पार्वतीका-२स्थापना निक्षेप. वायके, अपने ताले जिंदमें कबजकरके रखतेहो, और इस लेखसेंयहभी सिद्ध हुवाकि, ढूंढक ढूंढ नीजीने-स्थापना निक्षेपको, जो निरर्थकरूप-उहराया है सोभी जूठे जूठ ही लिखमारा है। अगर जो तुम ढूंढको उपादेय रूप, वस्तुकी-मूर्तिको, उपादेय के स्वरूपसें, न मानोंगे तो जैन धर्मका द्वेषीमें सें-कोइक बदमास, ढूंढनी साध्वी जीकी-मूर्ति के, साथ कुचेष्टा करता हुवा पुरुषकी मूर्तिको । और ढूंढक साधुकी मूत्तिके साथ-किसी रंडीकी मूर्तिको । बे अदबसें खिचवायके, अनेक प्रकारकी अपभ्राजना करता हुवा भी, तुमको कुछ भी बोलनेको न देवगा, परंतु मूर्तिको भी-उपादेयपणे, मानने वाले हम-उस बदमासको, हठासकेंगें, और ऐसे अत्याचार करने वालेको, हठानेकी, हमको भी जरुर ही है, नही तो तमासा देखनेवाले लोको भी बेठे हुये ही है । तो अब विचार करोंकि-तीर्थकरोंकी अपेक्षासे, आज कालके-नुछ पात्ररूप, साधुओंकी-मूत्तियां भी, उपादेयपणे तपर करके ही, बदमास लोकोंको--हम हटासकेंगे, तो पिछे हमारा--परमाप्रिय, परमपूज्य, परमोपदेश दाता, शासनके नायकरूप, तीर्थकरोंकी-मूत्तियांको, निरर्थकरूप मानके, हम ही जैन कुलमें-अंगारापरू, बने हुये, अवज्ञा करनेवाले, तीर्थंकरों के भक्त, कैसे बनेंगे ? इस बातका रिचार, तीर्थकरोंके-भकोंको तो, अवश्य करनेके, योग्य ही है, बाकी रहे जो-महा मिथ्या दृष्टि, और दुर्भवी, अथवा अभवी, उनोंकी पाससे हम कुछ भी विचार नहीं करा सकते है ।।
और देखोकि-सिद्धांत कारोंने तो, सर्व वस्तुका-स्थापना निक्षेपको, अपना अपना स्वरूपका-पिछान करानेमें, कारणरूप, मानके-सार्थक, और कार्यकी सिद्धि में, उपयोगवाला हीमाना है, तो पिछे तीर्यकरोंका-स्थापना निक्षेप, निरर्थक हीहै, ऐसा ढूंदनी-कैसे
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