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( २० )
ढूंढक पुस्तकों के निक्षेपका विचार,
अब समकितसार वस्तुको -जनानेके लिये, जो उस पुस्तकं में स्थापना निक्षेपका विषय स्वरूपकी- अक्षरोंकी जुडाई है, सोभी, जेठमलजी के पुस्तककी - निरर्थक, रूपही है । क्योंकि-ढूंढक, ढूंढनीजीने - दूसरा स्थापना निक्षेपभी, निरर्थक, और कार्यकी सिद्धिमें - उपयोग विनाका मान्या हुवा है || २ ||
अब देखो - समतिसार - वस्तुका, तिसरा द्रव्य निक्षेप - पुस्तक पान के स्वरूपसे है, सोभी ढूंढक, ढूंढनीजीने-निरर्थक, और काथकी सिद्धिमें उपयोग विनाके, मानेहुये है । तो अब, हे भव्य पु· रुषो - विचार करोकि, समकित सार वस्तुका, प्रथमके-त्रण निक्षेप निरर्थक, और समकितसार वस्तुका कार्य की सिद्धिमें - उपयोगविना के हुये, तो पिछे जेठमलका दिखाया हुवा द्रव्य निक्षेपका विषयरूप पुस्तक, भावनिक्षेपका विषयभूत-समकितसार वस्तुको कहांसें मिलावोंगे ? | हमतो यही कहते है कि - भावनिक्षेपका विषय भूत जो वस्तु है, उनकी - सिद्धिकराने में, प्रथमके-त्रण निक्षेपही, परमोपयोगी है ॥ यहबात - ढूंढक, ढूंढनीजीके - लेखसेंही, हम सिद्ध करके दिखलाते है ||
देखो कि -- सत्यार्थ पृष्ट. १७ में - तीर्थकरका - भावनिक्षेपके, विषयमें दंढनीजी लिखती है कि शरीर स्थित, पूर्वोक्त चतुष्टय गुण सहित, आत्मा, सो- भावनिक्षेप है, यहभी कार्यसाधक है ||
अब देखो -- धर्मना दरवाजा - पृष्ट. ६२ - ६३ में - वाडीलालका लेख- केवलज्ञानादि सहि तव छे ते--भाव अरिहंत, खरखरा- अरिहं सतो तेज, अने- नंदनिक पण तेज, वाकीतो अरिहंत नामनो-माणसके, पथ्थर, कोईं - कल्याण, करी सके नही |
अब पृष्ट ६३ में, सूत्रका भावनिक्षेप में सूत्रमांनां तत्वो (बां
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