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( २८ ) शिव भक्ताश्रित-त्रण पार्वतीका ४ भावनिक्षेप..
प्रथम जो वेश्या पार्वती है सो-शोलें शृंगार सज्जकरके, अपने नेत्रोंका कटाक्ष-लोकों के उपर, डाल रही है, और परपुरुषोंकी राह देखनेको- बेठी हुई है, सोही - भात्र निक्षेपका विषय स्वरूपकी है | परंतु सो शिवभक्ततो - हेय रूप गंदापात्र जाणके, उनकी तरफ - थोडीसी निघा मात्र करके भी, देखता नहीं है ||
और मुख उपर - पड्डी, चढायके साक्षात्पणे बेठी हुई, जो हूंनी पार्वतीजी है सो अपनी आवश्यकादिक-नित्य क्रियामें, तत्पर, विहारादिक में उद्यत, उपदेश दानादिकमें- प्रवीण है, सोही भाव निक्षेपका विषय है । परंतु सो शिव भक्त - साक्षात्पणे देखकेभीविचार करता है कि ऐसीभी नवीन प्रकारकी - क्रिया करनेवाले लोक, दूनीयामें फिरते है । ऐसा शोच करता हुवा - नतो हर्ष धारण करता है, और नतो कुछ -- दिलगीरीपणाभी प्रगट करता है । मात्र एक नवीन प्रकारका - तेय पदार्थका स्वरूपको जाणकरके और विस्मित हुन दगदगपणे देखकरके पिछे अपना रस्ता पकड लिया है ।
अब सोशिव भक्त - एकांत स्थलमें, अपनी उपादेयरूप शिवपार्वती जी की मूर्त्तिके, सामने बैठकरके, उसीही पार्वतीजीके नामकी अर्थात् - नाम निक्षेपका, विषयभूतकी मालाभी- हमेशां फिराता रहा, और उसीही पार्वतीजीकी - पूर्व अपर अवस्थाका अनेक गु
गर्भित - भजनों को पढ़के, उसमें लयलीन भी होता रहा । तब ते भक्तकी ऐसी अलोकिक भक्तिको देखके, ते मूर्त्तिका अधिष्टित एक देवताने, उस भक्तको, साक्षात्पणे पार्वतीजीका - भावनिक्षेपके, स्वरूपसे - दर्शन कराया है । उससाक्षात् - पार्वतीजीका, स्वरूपको -देखके, सो शिवभक्त - विकश्वर रोमराजी पूर्वक, अत्यंत आल्हादित हुवा, उस साक्षातूरूप - पार्वतीजीके, चरणों में पडके, अपना निस्ता
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