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( २६ ) शिवभक्ताश्रित-त्रण पार्वतीका द्रव्य निक्षेप.
उस वेश्या पार्वतीकी— मूर्त्तिको, केवल हेय रूप समजके, निंद निक ही मानता है |
और मुख उपर- मुहपत्तिका, चिन्ह चढाया हुवा है जिसने, ऐसी ढूंढनी पार्वतीजीकी, दूसरी मूर्त्तिको, देखके, सो शिव भक्त - नतो हर्षित हो, प्रीतिको, हिखावता है, और नतो मुख नाशिक को चढायके—अपभ्रानना, करता है । मात्र इतना ही मनमें ख्याल कर रहा है कि ऐसा भी एक नवीन प्रकारका रूप, दुनीयांमें होता है । केवल २ ज्ञेय रूपसे - समजता है | 1
और शिव पार्वतीजीकी - मूर्त्तिको, देखके - बडा हर्षित होके, अ. पनी रोम राजी तो करलेता है विकस्वर, और अपनी मुख नाशिकाका दर्शा तो कर लिया है - भव्य स्वरूप, और अपने नेत्रों से अमृत भावको वर्षावता हुवा, वारंवार तृप्त निघासें देखके, और अपनी परम ३ उपादेय वस्तुकी - मूर्त्ति (आकृति) समजकर, अ. पना मस्तकको – जुका, रहा है । और दूसरे पुरुषोंको बोध करा नके लिये, मुखसे उच्चारण करके भी कहता है कि देखो प्यारे यह जगेश्वरीकी - मूर्त्तिका, क्या अलोकिक स्वरूप है, इत्यादि ।
पार्वतीका स्थापना निक्षे
।। इति शिवभक्त, आश्रित -त्र पका, स्वरूप ॥
|| अब इस ही शिवभक्त आश्रित : पार्वतीका तीसरा द्रव्य निक्षेपका स्वरूप- प्रदर्शित करते है ||
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अब सो शिवभक्त उसी - वेश्या पार्वतीकी काम विकारका स्वअवस्थाको, अथवा अपर अव
रूपको ही प्रकट करनेवाली - पूर्व स्थाको, (अर्थात् योवनत्वकी - -पूर्व अपर अवस्थाको ) निघा क
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