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( ४ )
हेय-वस्तुके, चार निक्षेपमें दृष्टांत.
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पदार्थ है । अब स्त्री-माता, भगिनी, बेटी, वधू, आदिकी भावना, समाजकी प्रवृत्तिकी विचित्रतासें होती है। एक कल्पनायें-- भक्ति रागकी भावना, तो दूसरी कल्पनायें - प्रीति रागकी भावना, रहती है | परंतु समाजकी प्रवृत्तिको छोडके जो साधु पदको अंगीकार करता है, सो तो - स्त्रीरूप वस्तु मात्रका, त्याग ही करके, व्रतको अंगीकार करता है, इस वास्ते स्त्रीरूप वस्तुका - चारों निक्षेपको भी त्याग ही करता है ||
अब देखोकि स्त्रीरूप - वस्तुका भावनिक्षेप योवनत्व, अंबस्थामें कियाजाता है । क्योंकि, कामी पुरुषको शीघ्रपणे कामविकारकी माप्तिकरानेवाली अवस्था वही है, । सो स्त्री, साधु-पुरुषोंको, सर्वथा प्रकार से त्यागने के ही योग्य है । और उत्तम संन्यासी साधु, सामी1 नारायण के साधु, जैन साधु, विगेरे सर्वे साधुओं प्रत्यक्षपणे त्यागभी कर रहे है, ओर इस स्त्रीका -- योवनत्वरूप, भावनिक्षेपका त्याग होनेसें उनका १ नाम निक्षेप । २ स्थापना निक्षेप | और ३. द्रव्यनिक्षेप काभी त्याग करनेका, शास्त्रों में प्रसिद्धही है । जैसेंकि - साधु पुरुषोंने, स्त्रीकी श्रंगार कथादिक करके, स्त्रीका वारंवार स्मरण, नहीं करना, यह निषेधकरने से - नाम निक्षेपका स्मरण, करना निषेध किया गया है ? | और स्त्री आदिकी चित्रशाला में साधु पुरुषों को रहनेका निषेध होनेसें, स्त्रीके - स्थापना निक्षेप काभी, त्याग करनाही दिखाया है, और इस स्थापना निक्षेपका त्याग करानेके वास्ते, सिद्धांमेंभी प्रगटपणे पाठभी कहा है, देखो दश बैकालिकका अष्ठमाध्ययनकी ५५ मी गाथा, यथा. ॥ चित्तभित्तिं न निजाए, नारिं वा सुचलंकि भख्खरं पित्र दहू, दिठिं पडि समाहरे ५५ ।।
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