Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni
Publisher: Ratanchand Dagdusa Patni
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मूढताका त्यागीसा कल्याणकापात्र.
( २४९ )
इस उदाहरणसें विचार करोकि, जो पुरुष, साधारण माका वचनमें भी, पारा सारका विचार नहीं करता है सो, नतो इस लोकका - कार्यकी सिद्धि, कर सकता है, और नतो परलोकका
भी कार्य की सिद्धि, कर सकता है । तो पिछे जो जैन तत्वका
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मूल सिद्धांत ? सात नयोसें गर्भित । २ चार निक्षेपादिकसें गभिंत । ३ प्रत्यक्ष परोक्ष वे मूलके प्रमाणसे गर्भित । ४ उत्सर्ग अ पत्रादादिक षट् भंग भी गर्भित है । उसका तत्त्व गुरु के बिना मूल मात्रसें कैसें समजा जावेगा ? कभी भी न समजा जावेगा। इसी का रण इसमें सें एकैक विषय के साथ, नव वादिक स्वरूप हजारो श्लोकोंमें लिखके, महापुरुषो दिखा गये है । और ते ग्रंथो विद्यमान पणे भी है । अगर कोई महापुरुष फिरसें भी लाखो श्लोकों में, लिखके दिखलावे, तो भी आगे काल विशेषसें, और पुरुष विशे षके योगसें, समजनेकी, और समजावनेकी - अपेक्षा ही बनी रहती है ! इस वास्ते कारण पायके - पहापुरुषोंको, ग्रंथों बनानेकी आवश्यकता पड़ जाती है ।
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परंतु निर्युजिकार, भाष्यकार, और टीकाकार महापुरुषोंकाआश्रयको अंगीकार किये बिना, और परंपराका सद्गुरुके पास पढे बिना, हमारे जैसे आजकालके जन्मे हुये अल्प बुद्धिवालोंको, जैन धर्म के तत्रके विषय में एक दिशा मात्रका भी भान होना बडा दुर्ग है । तो पिछे उस महापुरुषों की अवज्ञा करके, और गुरु द्राहीपणाका महा मायश्चित्तका बोजा, शिरपर उठायके, और मूल सूत्र मात्रका ---जूठा हठ पकडके, जो कुछ जैन तत्त्वके विषय में लिखेंगे, और दूसरोंको उपदेश देखेंगे, सो सभी जूउही जूठके शि वाय, नतो सत्य स्वरूपका लेखको लिख सकेंगे, और नतो दूसरोंको सत्य स्वरूप सें समजा सकेंगे |
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