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(२२८) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. देखो. सत्यार्थ. पृ. १४४ सें १४६ तक-ढूंढनीजीका लेख ।। पिछे इनकी समीक्षा देखो. नेत्रां. पृ. १५५ से १६२ तक ।। ४७ ॥ इहांतक ढूंढनीजीने दूसरा पाठसे जो जिन मूर्तिका-निषेध दिखाया था ? उनका विचार किया गया ।
॥ अब ढूंढनीजीके तिसरा पाठका विचार करते है ।। तीनों चोवीसी तणी, कही प्रतिमा बहुतेर । वंदन पूजन भी कहा, तोभी करें अंधेर ॥ ४८॥
तात्पर्य-नंदी सूत्रमें, मूल सूत्रोंकी नोंध दिखाइ है, उस नोंधकी गिनतीमें आया हुवा, यह विवाह चूलियाका पाठ-सत्यार्थ. ए.१४७ सें, ढुंढनीजीने लिखा है। उसमें ऋषभ आदि ( ७२) तीर्थंकरोंकी पतिमा आदि होनेका गौतम स्वामीनीने प्रश्न किया है, उसका उत्तरमें, वीर भगवंतने कहा है कि- सर्व देवताओंकी प्रतिमा होती है । फिर गौतम स्वामीजीने, केवल तीर्थंकरोंकी ही-प्रतिमाओंका, वंदन, पूजन, करनेके विषयमें, प्रश्न किया है । इस दूसरा प्रश्नके उत्तरमें भी, वीर भगवानने यही कहा कि-हा गौतम, तीर्थंकरोंकी प्रतिमाओंको, वांदे भी, और पूजे भी। _ और दूंढनीजीने भी, सत्यार्थ. ए. १४८ में-यही अर्थ लिखा हुवा है । परंतु आगे तिसरा प्रश्नोत्तरमें, महा नीशीथका पाठकी तरां, साधु पुरुषोंको ही-द्रव्य पूजन करनेके निषेधका, परमार्थको नहीं समजती हुई, और दूसरा प्रश्नोत्तरमें दिखाया हुवा, जिन मूर्तियांका-वंदन, पूजनरूप, वीर भगवानके उपदेशका भी-लोपको करती हुई, और तीर्थंकरोंकी भक्तिसें जिन मूर्तिकी पूजा करने वाले, भव्य प्राणियोंको-मिथ्यात्वी, अनंत संसारी, जूठे जूठ लिख मारती है ? । और वीर भगवानको भी साथमें कलंकित करती
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