Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni
Publisher: Ratanchand Dagdusa Patni
View full book text
________________
तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२२३) शासनमें-कपुत्त, पेदा हुये है ? । कदाच ते कपुत्तो-तीर्थंकरोंका उपकार, दूसरा प्रकारका न मानते, परंतु उनके नामसें रोटी खाते है, इतना मात्र तो उपकार मानते ?। और तीर्थंकरोंकी शांत मूर्तिकी पूजासे हटाके, यक्ष भूतादिकोंकी क्रूर मूर्तियांको तो न पूजाते ?। तो भी कुछ योग्यपणा रहता, परंतु तदन कपुत्तोंको हम कहांतक शिक्षा देते रहेंगे ? ॥ देखो इनकी समीक्षा, नेत्रां पृ. १३३ से १३७ तक ॥ ४० ॥ भेजी अभय कुमारने, मूर्ति श्रीजिनराज । देखी आद्रकुमारने, पायो आतम राज ॥ ४१ ॥
तात्पर्य-सूयगडांग सूत्रकी टीकामें लिखा है कि-अनार्य देशवासी आद्र कुमारथा, उसने अभय कुमारकी साथ-मैत्रीभाव करनेकी इछासें, कुछ भेट भेजाई, ते भेट लिये बाद अभयकुमारने, बु. द्धिबलसे विचार करके, उनको बोध करानेके वास्ते, भेटनेमें तीर्थकर देवकी मूर्ति भेजाई, और एकांत स्थलमें खोलनेकी सूचना किई, ते देखके उहापोहकरनेसें जाति समरण ज्ञान प्राप्त हुवा, छेवटमें दीक्षा ले के अपना आत्माका राज्यभी प्राप्त करलिया ॥ ऐसें अनेक भव्य प्राणियोंने, तीर्थकरोंकी मूर्तियांके दर्शनसे अपना कल्याण किया हुवा है । इस वास्ते तीर्थंकरोंकी भव्य मूर्तियां-निंदनिक, नहीं है । यह प्रसंगिक बात लिखके दिखाई है ।। ४१ ।। शासन नायक मुनिवरा, ज्ञान तणा भंडार। निदी ढूंढनी कहत है, ते सावद्याचार ॥ ४२ ॥ नियुक्ति ढूंढनी बनी, बनी आपहि भाष्य। टीकाभी ढूंढनी बनी, करें सब ग्रंथका नाश ॥ ४३ ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org