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तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. (२२१) है । तोभी ढूंढनीजीने, सत्यार्थ. ए. ९० सें ९९ तक-अनेक प्रकारकी जूठी कुतर्को करके, रूपका निधान, सोल सतीयांमें प्रधान, ऐसी राजवर कन्या द्रौपदीजी परम श्राविकाको, वर नहीं मिलताथा ? सो प्राप्त करा देनेके वास्ते, ढूंढनीजी, मिथ्यात्वी-काम देवकी पथ्यरकी मूर्ति पूजा करायके, प्राप्त करादेनेको तत्पर हुई है ?। और वीतराग देवकी स्तुतिरूप-नमोथ्थुणं, का पाठभी-काम देवकी मू. त्तिके आगे, पढानेको तत्पर होती है ? । परंतु ढूंढनीजी, इतनामात्र भी विचार नहीं करसकती है कि-कहां तो, वीतराग देव, और कहां तो-मिथ्यात्वी कामदेव, उनके आगे तदन अयोग्य पणे-नमोथ्थुणं,का पाठ, मैं कैसे पढाती हुँ ? परंतु शुद्र बुद्धिवालोंको, योग्या योग्य का-विचारभी, कहांसें आवेगा ? ॥ देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. ट. ११० से ११४ तक ॥ ३८ ॥ तीन निक्षेप नहि कामके, ढूंढनी कहैं प्रत्यक्ष । मूर्ति छुडावें जिनतणी, मूढ पूजावें यक्ष ॥ ३९ ॥ - तात्पर्य-वीतराग देवकी वैरिणी ढूंढनीजी, तीर्थकर देवकेप्रमथके तीन निक्षेप, निरर्थक, और उपयोग बिनाके-ठहरानेके लिये, सत्यार्थ. पृ. ८ सें-प्रथम इंद्रका, स्थापना निक्षेप रूप-मूत्तिको, सर्वथा प्रकारसें-निरर्थक, ठहराई । और उनकी पूना करके-धन पुत्रादिक मागनेवालोंको, और उनका मेला, महोत्सव, करनेवालोंको, अज्ञानी ठहरायके, पृ. १७ तकमें-जूठे जूठ लिखके, प्रथमके-तीन निक्षेप, निरर्थक, और उपयोग बिनाके लिखके, सिद्ध करके दिखलाया॥ ___हम पुछते है कि-जब प्रथमके तीन निक्षेप, सर्वथा प्रकारसेंनिरर्थक दिखलाती है, तो पिछे सत्यार्थ. ए. ७३ में यक्षादिकोंका,
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