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( २२० ) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. करके, अघोर कर्मका बंधन करते हो ? देखो. नेत्रा. ए. १०३ से ४ तक ॥ २६ ॥ आनंदके अधिकारमें, पाठ छिपावें अबुज्ज । गुरुविना समजे नहीं, जिनमारगका गुज्ज ॥ ३७॥ __ तात्पर्य-आनंद श्रावकजीके अधिकारमें, ढूंढनीजीने-सं. १९८६ के शालकी जूनीपरतमें, ऐसा देखाकि-(अण्ण उथ्थिय परिग्गहियाइ चेइया ) परंतु ( अरिहंत चेइयाइं ) ऐसा नहीं देखा, ऐसा सत्यार्थ. पृ. ८९ में, लिखा ॥ और ट. ८८ में, इसी पाठको-प्रक्षेपरूप, ठहराया । परंतु जो हमारे ढूंढकभाइओं किंचित् विचार करेंगेतो, इस आनंद श्रावकजीके-सर्व प्रकारके पाठोंमें, सर्व जगेंपर-चेइय शब्द आनेसें, उनका अर्थ-जिनप्रतिमाकाही होगा?! तोभी ढूंढनीजीने, अनेक प्रकारकी जूठी कुतकों करके, ते पाठका सवंथा प्रकारसें-लोपकरने काही, विचार किया। जब ढूंढनीजी, इतना सामान्य मात्रका विषयकोही-नहीं समजी सकती है, तोपि छे जैन मार्गका-विशेष गुज्जको, क्या समजने वाली है ? ॥ देखो इनकी समीक्षा. नेत्रां. ए. १०८ सें ९ तक ॥३७ ॥ जिनपडिमाकी पूजना, द्रौपदीकेरी खास । नमोथ्थुणं के पाठसे, करी कुतर्क करें नाश ॥ ३८॥
तात्पर्य-द्रौपदीजी परम श्राविकाने, खास जिनपडिमाको पूजी। और भक्तिके वस होके-धूपदीपादिकभी किया । और छेवटमें तीथंकरोंकी स्तुतिरूप-नमोथ्थुणं, का पाठभी पढया । और विधि सहित सत्तर प्रकारका भेदसे-शाश्वती जिनप्रतिमाओंका पूजन करने वाला, जो समकित दृष्टि-सूरयाभ देवता है, उनकी उपमाभी दीई
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