Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni
Publisher: Ratanchand Dagdusa Patni
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( २१८ )
तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी.
याइं, वंदइ, अर्थात् उहां पर रही हुई - शाश्वती जिन प्रतिमाओंको, वंदना करते है ।
पिछे इस भरत क्षेत्रमें आके - बडे बडे तीर्थों में रही हुई, अशाश्वती जिन प्रतिमाओं को - वांदते है । इस विषय में ढूंढनीजी - सत्यार्थ. ए. १०१ से १०६ तकमें, अनेक प्रकारकी जूठी कुतर्कों करके, और पृ. १०२ में - रुचकादिक द्वीपमें रही हुई, शाश्वती जिन प्रतिमा
को - मान्य करके भी, छेवटमें उहांपर- ज्ञानका ढेरकी स्तुति करनेका, बतलाती है । ढूंढनीजीको - वीतरागीमूर्त्तिसें, कितना द्वेषभाव हो गया है । देखो. नेत्रां. ए ११७ से २१ तक ॥ ३५ ॥
चमरेंद्र के पाठ में लिखा अरिहंत चैत ।
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पद विशेष जोडी कहै, चैत्यपद यह विपरीत ॥ ३५॥
तात्पर्य - चमरेंद्र उर्द्ध लोकमें गया, तब शक्रेंद्रने विचार किया कि- १ अरिहंतकी, २ अरिहंतकी प्रतिमाका, अथवा ३ कोई महात्माका |
इस तीन शरणमें सें - एकाद शरण लेके, देवता उर्द्धलोकमें आसकता है, ऐसा सकेंद्रने विचार किया है, इसमें दूसरा शरण- अरिहंत चेइयाणि, अरिहंत सो तो तीर्थकर भगवान, और चैत्य कहनेसेंप्रतिमा, अर्थात् अरिहंतकी प्रतिमाका, शरण लेनेका विचारा है। और अंबड श्रावकका पाठकीतरां, सर्व जैनाचयाँने - एकही अर्थ करके दिखलाया है । तोभी ढूंढनीजी सत्यार्थ पृ. १०९ से १३ तकमें, अनेक जूठी कुतर्कों करके, और पद शब्दको, विशेषपणे जोडके - अरिहंत पद का अर्थ करके दिखलाती है। अब ख्याल करोकि-इस अरिहंत चेइयाइं, का अर्थ, अंबडजीके अधिकारमें
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