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( २१६ ) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. तो-काम देवकी मूर्ति ठहराइ, और तीर्थकरोंकी स्तुतिरूप-नमोथ्थुणं, का पाठ, तदन अयोग्यपणे-मिथ्यात्वी काम देवकी, मूर्तिके आगे-पढानेको तत्पर हुई, ऐसी जगें जगें पर-जूठी कुतकों करके, आप नष्ट होते हुये-हमारे ढूंढकभाइओ, दूसरे भन्यजनोंके धर्मका भी नाश करनेको-उद्यत होते है ? कैसें २ निकृष्ट बुद्धिवालेदूनीयामें, जन्म पडते है ? देवताओंकी समीक्षा. देखो. नेत्रां. प्र. ९५ से ९९ तक ॥ द्रौपदीजीको-नेत्रां. ए.११० से १४ तक||३०|| सैंकड पृष्टोंपर कहैं, सूत्र में पाठ अधिक। गुरु विना समजे कहां, परमारथको ठिक ॥ ३१ ॥ . - तात्पर्य-ढूंढनीजीने, सत्यार्थ. ए. ७५ में लिखा है कि हम देखते है कि, सूत्रोंमें ठाम २ जिन पदार्थांसें, हमारा विशेष करके -आत्मीय स्वार्थ भी, सिद्ध नहीं होता है-उनका विस्तार, सैंकडे प्रष्टोंपर [ सुधर्म स्वामीजीने ] लिख धरा है।
ऐसा लिखके ज्ञाता सूत्रका, जीवाभिगम सूत्रका, और राय प्रश्नी सूत्रका-सैंकडों एष्टों तकका, मूल पाठोंको-निरर्थक ठहराया है । परंतु जिस सूत्रमें-एक चकार, अथवा-वकार, मात्र भी, गणधर महापुरुषोंने-रखा हुवा होता है, सो भी सैंकडो अर्थोके-सू. चक, होता है । ऐसें महा गंभीरार्थ-सूत्रोंका, मूल पाठोंको भीसैंकडो पृष्टों तकका, निरर्थकपणा-उहराती है ? । परंतु इतना मात्र भी विचार नहीं करती है कि, जिस सूत्रका-एक अक्षर मात्र भी, कोइ पुरुष-आगा पाछा करें तो, उनको-अनंत संसार भ्रमण तकका, प्रायश्चित्त होता है, तो पिछे ऐसें महा गंभीर सूत्रके मूल पाठोंको सैंकडो पृष्टों पर-निरर्थक, कैसे कहे जावेंगे ? । परंतु-गुरु ज्ञान बिनाके हमारे ढंढकभाइओ, गणधर महापुरुषोंका विचारकोठीक २ कहांसें ममजेंगे ?॥ ३१ ॥ ..
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