Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni
Publisher: Ratanchand Dagdusa Patni
View full book text
________________
( २१४ ) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. नामादिकसे वस्तुका, वस्तुहि तत्त्व विचार । नहीं नामादिक तत्वहै, ते तो भिन्न प्रकार ॥ २८ ॥
तात्पर्य - अब हम एक दुहा में, किंचित् तात्पर्य कहते है कि-न तो ऋषभादिक नामोंके, अक्षरोंमें साक्षात्पणे तीर्थकर भगवान् बैठे है, तो भी इहां परतो ढूंढनाजी - अपना भाव मिलानेका, कहती है। और तीर्थंकरोंका - गुणादिकको याद कराती हुई, नमस्कारादिकभी कराती है ।
और जो तीर्थंकरोंका - विशेषपणे बोधको कराने वाली, तीकरोंकी - भव्य मूर्तियां है उहांसें, वीरभगवान के परमश्रावको हैंउनोंकाभी भावको हटाती हुई, यह विचार शून्या ढूंढनीजी — जो पितर, दादेयां, भूत, यक्षादिक मिथ्यात्वी देवोंकी, भयंकर - मूर्तियां है, उसमें भाव मिलानेका, सिद्ध करके दिखलाती है । और ते क्रूर देवताओंको - पूजानेकोभी, तत्पर हुई है ? | और तीर्थकरोंकीभव्य मूर्तियां में, हमारे ढूंढकभाइयां को श्रुति मात्र भी लगानेका, निषेध करती है ।।
w
सारी आलम दूनीया तो- जिस देवताका नाममें, अपना--भाव मिलाकरके, जिसका नामको, स्मरण करते होंगे, उनोंकीही- मूर्तिमें, अपना — भाव मिला करके, पूजन करेंगे । परंतु हमारे ढूंढकभाइओ - नाम तो जपाते है तीर्थकरोंका, और पूजन कराते है --मिथ्यावी देवताओं की क्रूर मूर्तियांका, कैसा अपूर्व धर्मका मार्गको ढूंढ ढूंढ करके निकाला है ? ॥
-
इहां पर थोडासा ख्याल करो कि तीर्थकररूप वस्तु-जैसें मूर्त्तिमें नहीं है, तैसेही— उनोंके नाम मात्रमंत्री, नहीं है। तोभी दानोंभी प्रकार में - तीर्थकर रूप वस्तुकाही विचारसें, नमस्कारादिक कर
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org