Book Title: Dhundhak Hriday Netranjan athwa Satyartha Chandrodayastakam
Author(s): Ratanchand Dagdusa Patni
Publisher: Ratanchand Dagdusa Patni
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(२१२) तात्पर्य प्रकाशक दुहा वावनी.
और न तो-पशुमें, न तो-पंखीमें, और न तो- थंभादिकमें, जाके. मिलेगा । सो तुमेरा मन है सो तीर्थकर भगवानकी इछाको करता हुवा तीर्थकरोंके समवसरणमें ही, जाके मिलेगा । उहांपर तो-जो यह विशेष बोधको करानेवाली, तीर्थंकरोंकी-भव्य मूर्तियां है, सो ही तुमको-दिखनेवाली है। परंतु तीर्थकर भगवान के-नामका जाप करनेसें, तुमको तीर्थंकरोंकी-आकृति के शिवाय, दूसरा कुछ भी तुमेरे दिखनेमें आनेवाला नहीं है । किस वास्ते तीर्थंकरों कीभव्य मूर्तिकी भक्तिको छोड के, और-मिथ्यात्वी क्रूर देवताओंकी, भक्ति के वश हो के-अपना आत्माको, अघोर संसारका दुःख में डालते हो ? अबी भी क्षणभर सोचो ? ॥२५॥ तीर्थंकर के भक्तको, तीर्थकरका ज्ञान । नामको सनते होत है, नहीं म्लेछको भान ॥ २६ ॥
तात्पर्य-देखो कि-ऋषभादिक नामका, श्रवण करनेसे, अथवा उच्चारण करनेसें, जो तीर्थकरों के भक्त होंगे सोही, समवसरणमें रही हुई आकृतिका, (अर्थात् मूर्तिका) ज्ञान करेगा । परंतु म्लेछ होगा सो तो, समवसरणमें रही हुई-तीर्थकरों की आकृतिका, विचार कबी भी न करेगा । सो तो ढंढनीजीने दिखाया हुवा -पुरुष, पशु, पंखी, स्थंभादिक-वस्तुओंमेंसें, जिसको जानता होगा, उसीकी ही-आकृतिमें, अपना भाव मिलावेगा ? । किस वास्ते तीर्थकर भगवानकी-भव्य मूर्ति के विषयमें, जूठी कुतों करकेअपना नाश, कर लेते हो ? ॥ २६ ॥ नाम गोत्रका श्रवणसे, बडाहि लाभकी आश । भक्त करे भक्तिवसे, तो क्यों मूर्तिसे त्रास ॥ २७ ॥ -- तात्पर्य देखो कि, सत्यार्थ. पृ. १५२-१५३ में, ढूंढनीजी
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