________________
मनकी-मलीनताका, विचार. (१९९) जंघाचारण मुनियोंकी पाससे शाश्वती जिन पतिमाकी स्तुतिके स्थानमें नंदीश्वर द्वीपादिकमभी ज्ञानना ढेरकी स्तुति करवाई उनका ? अबमिछामि दुक्कडं देती है तो क्या यह जानके किया हुवा सूत्रोंका उत्थापनारूप अघोर पापसे, एक मिछामि दुक्कड मात्रसे छुटसकेगी ! जो लिखती है कि, जानते किया हुवाकाभी मिछामि दुक्कडं ॥ __हांजो कोई अजानपणे, दृष्टि दोष हुवा होतो, पश्चात्ताप करने सेभीछुटसके, परंतु तूंतो टीका, टब्बाकार, विगरे सर्वमहापुरुषोंसे, विपरीतपणे तो लेखलिखनेको तत्पर हुई है, तो पीछे एक मिछामिदुक्कडदेने मात्रप्से कैसे छुटसकेगी ?।। और यह तेरा उत्सूत्र प्ररूपणरूप लेखको, अनुमोदन देनेवालेभी तेरेहीसाथी क्यों न होंगे? क्यौंकि सूत्रका एकभी अक्षरका लोपकरने वालोको, अनंत संसारी कहा हुवा है, ऐमा मुखमैं तो तुमभी कहतेहो और तुमतो सैकडे शास्त्रोका, और सैंकडों पृष्टोपर-मूल सूत्रोंका लेखकोभी, और हजरो महान् जैनाचार्योंकाभी-अनादर करके, अपना मूढ पंथकी सिद्धि करनेके वास्ते-तत्पर हुयेहो, तो पीछे कल्याणका मार्ग ते कहांसें हाथ लगेगा ? हमने जो यह कहा है सोकुछ-द्वेषभावसे नहीं कहाहै, जो शास्त्रकारोंका अभिप्रायसे मालूम हुवा सोही कहा है ॥ इत्यलमाधिकेन ।
॥ अब ग्रंथकी पूर्णा इति॥ ॥ किं विश्वोपकृतिक्षमोद्यमयी किं पुण्यपेटीमयी, किं वात्सल्यमयी किमुत्सवमयी पावित्र्यपिंडीमयी । किं कल्पद्रुमयी म. रुन्मणिमयी किं काम दोग्धीमयी, मूर्तिस्ते मम नाथ कां हदि गता धत्ते न रूपश्रियं ।। १ ॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org