________________
तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी.
( २०३ )
-
तात्पर्य - जब स्त्रीकी मूर्ति, कामी पुरुषोंको काम जागता है, तो पिछे - तीर्थकर देवके भक्तोंको, तीर्थकरों की मूर्तियांको देखके, भक्तिभाव, क्यौं न होगा ? अपितु अवश्य मेव होनाही चाहिये | देखो इस बातका विचार नेत्रां पृष्ठ ७१ सें ७२ तक ||६|| मूर्त्ति स्युं ज्यादा समज, नामसें नहि तादृश । तो तीर्थंकर मूर्त्तिस, ढूंढकको क्यौं रीस ॥ ७ ॥
तात्पर्य — ढूंढनीजी ने लिखा है कि- नाम सुननेकी अपेक्षा, आ. कार देखने से ज्यादा, और जल्दी समज आती है। तो पिछे तीकरोका - नाम मात्रको श्रवण करनेसें, आनंदित होनेवाले तीर्थंकके भक्तोंको, तीर्थकरों की ही भव्य मूर्तियांको देखनेसें, क्यौं रीस आती है ? | क्यौं कि - पशु, पंखी भी - आकार देखनेसें, विशेषपणे ही - समजुति, करलेते है । तो पिछे जो मनुष्यरूप होके, समजे नहीं, उनको क्या कहना ? | देखो इसका विचार. नेत्रां पृष्ट. ७२ से ७४ तक ॥ ७ ॥
अपनी स्त्री की मूर्ति, लाग्यो मलदिन तेह |
-
जिन मूर्त्तिसें हि ढूंढको, न धरें किंचित नेह ॥ ८ ॥ तात्पर्य - ढूंढनीजीने - लिखा है कि, मल्लदिन कुमारने, चित्रशाली में मल्लिकुमारीकी मूर्तिको देखके लज्जा पाई, और अदब उठाया । तो पिछे वीतराग देवके भक्त होके, जो वीतरागी मूतिसें - प्रेम, नहीं करते है, और अदबभी नहीं उठाते है, उनको तीर्थकरों के भक्त, किस प्रकारसें कहेंगे ? | देखो इसका विचार. नेत्रां पृ. ७४ सें ७६ तक ॥। ८ ॥
मुद्रिका में जिन मूर्त्तिकु, राखी दरसन काज । करणी वज्रकरणतणी, ते तो कहैं
Jain Education International
काज ॥ ९ ॥
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org