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तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी.
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( २०७ ) लगावेगा, और साथमें - अपना ४भावभी, मिलावेगा । तबही अपना इछित फलको - मिलावेगा, यह बाततो अनुभवसें सिद्ध रूपही है | हमारे दंढकभाइओ, जैनधर्मका सनातनपणेका तो दावा करनेको जाते है | और तीर्थकरों की भक्तिको - सर्वथा प्रकारसे छुडवायके, केवल यक्षादिको ही सर्वप्रकार से भक्ति करानेको, तत्पर होते है ? अहो चिंतामणि रत्न तुल्य, जो वीतराग देवकी भक्ति है, उनको छुडवायके - काच तुल्य जो यक्षादिक देवताओ है, उनकी तुछरूप भक्तिमें, फसा कर के, भोले श्रावकोंको — जैन धर्मसें भ्रष्ट करते है ? यही हमको बडाखेद होता है ॥ १५ ॥
धन पुत्रादिक कारणे, दिखे मूर्त्तिमें देव ॥ दिसें नहीं जिन मूर्त्तिमें. निंदे जिनवर सेव ॥ १६ ॥
तात्पर्य - केवल संसारकी ही, वृद्धिका कारण रूप- जो धन पु· त्रादिक है उसको लेने के वास्ते तो हमारे ढूंढक माइयां को— मिथ्यावी यक्षादिक देवोंकी, भयंकर स्वरूपकी - पूत्तियांमें, साक्षात्पणे देव दिखपडता है । इस वास्ते तो, उनोंकी पथ्थर की मूर्तियांकोभी - पूजानेको, तत्पर होजाते हैं ? और वीर भगवान के परम श्रावकों पास सें- पितर, दादेयां, भूतादिकोंकी, मूर्तियांकी - प्रयोजनविनाभी पूजा करानेको, तत्पर होजाते है ? मात्र वीतरागी ही - मूर्त्तिको देखके, तन मन में जलते हुये - निंदाही करनेको, तत्पर होजाते है | न जाने किस प्रकारका, अघोर पापका उदय, हुवा होगा ? ॥ १६ ॥
भक्त बनें अरिहंतके, उसी मूर्त्तिसें द्वेष । यक्षादिककी पूजना, करत विचार न लेश ॥ १७ ॥ तात्पर्य - हमारे ढूंढकभाइभ, तीर्थकरों के तो परम भक्त बन
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