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( २०८, तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. नेको जाते है । और तीर्थकरोंकीही-मूर्तिसें, द्वेषभाव करते है। और जो मिथ्यात्वी देवताओंकी क्रूर मूर्तियां है, उनकी पूजा-महा आरंभ के साथ, करते हुये, और करावते हुयेको, एक लेश मात्रभी-विचार नहीं आता है । तो अब उनोंको ( अर्थात् हमारे ढूंढकभाइयांको ) किस प्रकारका-विपरीत बोध हुवा, समजना ? सो कुछ समज्या नहीं जाता है ॥
नाम सु मूरतिमें कहैं, ढूंढनी बोध विशेष । भाव मिलावे नाममें, करत मूर्तिसे द्वेष ॥ १८ ॥
तात्पर्य-सत्यार्थ. पृष्ट. ३६ में, ढूंढनीनी लिखती है कि-नाम सुननेकी अपेक्षा, आकार ( मूर्ति ) देखनेसें-ज्यादा, और जल्दी, समज आती है । ऐसा प्रगटपणे लिखके, तीर्थकरोंका केवल नाम मात्रमें ही भाव मिलाके-नामको, जपाती है । और यक्षादिक मिथ्यात्वी क्रूर देवताओंका, नामको भी-भाव मिलाके जपाती है ? ।
और उनोंकी-मूर्तियां भी, भावके साथ, पूजाती है ! । और उनोंकी-कर मूर्तियां में, श्रृति लगानेका भी—सिद्ध करके दिखलाती है ? । केवल तीर्थकरोंकी ही-भव्य मूत्तियांको, देखके, द्वेषसें-प्रज्वलित हो जाती है । हमारे ढूंढक भाइयांको, हमने किसके-भक्त, समजने ? ॥ १८॥ मूर्ति आगे न मुकदमें, कहत ढूंढनी एह । नाम मात्रसें मुकदमें, कैसें चलावे तेह ॥ १९ ॥
तात्पर्य–सत्यार्थ. पृ. ४२ में, ढूंढनीजीने, लिखा है कि-मूर्तिके आगे, मुकद्दमें नहीं हो सकते है ।अर्थात् भगवानकी-मूतिके आगे, अपना पापादिककी-आ लोचना, नहीं हो सकती है।
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