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(२०६) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बाधनी. कहती है कि-मूर्ति पूजाका, सूत्रों में जिकर ही नहीं । क्या ज्ञानकी खूबी है ? देखो नेत्रां पृ. ८८ से ८९ तक ।। १३ ॥ दो अक्षरके नाममें, दिखें प्रत्यक्ष देव । नहीं तिनकी मूर्तिमें, कैसी पडी कुटेव ॥ १४ ॥
तात्पर्य-सत्यार्थ. पृ. ५० में-भगवानके दो अक्षरका-नाम मात्रको, गुणा कर्ष कह करके, उसमें ढूंढनीजी-भावको मिलानेको कहती है । तो पिछे तीर्थकरों के स्वरूपका-ताश बोधको कराने वाली, तीर्थंकरोंकी भव्य स्वरूपकी मूर्तियां, लाखोकी गिनतीसें, विद्यमान होतेहुयें भी उनको छोडकरके, ढूंढनीजीका-भाव, मिथ्या त्वी यक्षादिकोंकी-क्रूर स्वभावकी मूर्तियां क्यों फसजाता है ? । क्या तीर्थकरोके साथ, हमारे ढूंढक भाइयां को-कोइ पूर्वभवका वैर जाग्या है ? ॥ १४॥ श्रुति मात्र हि जिन मूर्तिमें, ढूंढनी करें निषेध । यक्षादिकमें आदरे, यही बडा हम खेद ॥ १५॥
तात्पर्य-सत्यार्थ. पृ. ६७ में-दूंढनीनी, मूर्तिमें-श्रुति मात्रभी लगानेका, निषेध करती है । और ष्ष्ट. ७३ में—पूर्ण भद्र यक्षादि. कोंकी, मूर्ति भोंका । और पृष्ट. १२६ में-पितर, दादेयां, भूतादिकोंकी-मूर्तिओं का, फल फूलादिक-महा आरंभसें, पूजा को कराती हुई, सब कुछ करानेको तत्पर हुई है । ढूंढ नीजीका इस लेखमें, हमको यह विचार आता है कि-आजतक हमारे ढूंढकभा. इओ, जो जैनधर्मसें, आधेभ्रष्ट हो गये है, उनको सर्वथा प्रकारसेंभ्रष्ट करनेके वास्ते, ढूंढनीजीने-इस लेखको, लिखा है ! क्योंकि जो पुरुष, जिस देवताकी मूर्तिका पूजन करेगा, सो पुरुष उस दे. वताका-१नामभी जपेगा, और उस २मूर्तिमें-अपनी ३श्रुतिभी,
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