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(२०२) तात्पर्य प्रकाशक दुहा बावनी. कल्प, खडे किये है । सो केवल कुतर्क ही किई है। परंतु जैन सिद्धांतोमें कोई ऐसा पाठ नहीं है । देखो इसका विचार दृष्ट. ४१ से ४७ तक ॥ ३ ॥ तीर्थंकर भगवानमें, कल्पित किया निखेप । उलट तत्त्व कथने करी, किया कर्मका लेप ॥ ४ ॥
तात्पर्य-ढूंढनीजीने ऋषभदेव भगवानमें भी-चार निक्षेप, कल्पित दिखाके, प्रथमके त्रण निक्षेप-निरर्थक, और उपयोग बिना के ही ठहराये है। परंतु चार निक्षेपमें सें--एक भी निक्षेप निरर्थक नहीं है । यह तो विपरीत लेखको लिखके ढूंढ नीजीने-अपना आस्माको, कर्मसें लेपित किया है । देखो इसका विचार. नेत्रां. दृष्ट. ४७ से ५२ तक ॥ ४॥
मूरतिमेंहि भगवानको, करावें चार निखेप । वस्तु भिन्न जाने बिना, भया हि चित्त विखेप ॥ ५॥
तात्पर्य-ढूंढनी नी भगवानकी, आकृति मात्रमें ही, भगवानके–चारों निक्षेप, हमारी पाससे करानेको चाहती है, परंतु इतना विचार नहीं कर सकी है कि-मूर्तिमें, पाषाण रूपकी वस्तु ही-भिन्न प्रकारसें, दिख रही है ॥ तैसें ही इंद्रसें-गूजरका पुत्र रूप वस्तु भी, अलग स्वरूपकी ही है ।। और खानेकी मिशरीसेंकन्यारूप वस्तु भी, अलग है । इस बास्ते इन सब वस्तुओंकाचार चार निक्षेप भी, अलग २ स्वरूपसे ही, किये जाते है । देखो इस बातका विचार, नेत्रां. टट. १३ से ७१ तक ॥ ५ ॥
मूर्ति स्त्रीकी देखके, जगें कामिको काम | जिन मूर्ति स्युं क्यों नहीं, भक्तको भक्ति ठाम ॥६॥
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