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ढूंढोका पराजय.
(१८७ )
धोयेज्जा, न रंगेजा, " दोनोकीही मनाई है, तो तुं धोयेला वस्त्र पहेनके क्युं फिरती है ? केवल अपना छिद्र ढकना, और दूसरमें नही होवे उसमें छिद्र देखनेका प्रयत्न करना ? और पाठका अर्थ, और उनका तात्पर्य समजे बिना केवल जिनको तिनको, दूषित ही करना और अपना चलनको छुपाना, इसमें तुमेरी क्या सिद्धि, होनेवाली है ? | इस विषयका विवेचन करके ही आये है, इसवास्ते पिष्टपेषण नही करते है.
ढूंढनी - पृष्ट. १६६ ओ ७ से सम्यक्क शल्पौद्वारादि बनाने वाले, मिथ्यावादी है, क्योंकि उसमें लिखा है कि-ढूंढिया मत, अढाईसो वर्षसे निकला है, और चर्चा में सदा पराजय होते है.
परंतु हमने तो पंजाब हाते में, एक नाभामें, संवत् १९६१ में चर्चा, देखी, उसमें तो पूजेरोंकीही - पराजय हुई | फिर. पृष्ट. १६९ से - लिखा है कि, शिवपुराण बनानेवाले, वेद व्यासको हुयें ५ हजार वर्ष कहते हैं, जब भी जैनी - ढूंढिये हीथे, क्योंकि, शिव पुराण- ज्ञान संहिता, अध्याय २१ के श्लोक २-३ में लिखा है
मुण्ड मलिन वस्त्रच, कुंडिपात्र समन्वितं । दधानं पुञ्जिकहाले, चालयंते पदेपदे । २ ।
अर्थ - सिर मंडित, मैले (रज लगे हुये ) वस्त्र, काठके पात्र, हाथमें - ओघा, पग २ देखके चलें, अर्थात् - ओघेसे कीडी आदि जंतुओं को हटाकर पग रखें || २ ||
वस्त्र युक्तं तथा हस्तं क्षिप्यमाणं सुखे सदा । धर्मेति व्याहतं तं नमस्कृत्य स्थितं हरे | ३ |
अर्थ - मुख बखका (मुखपत्ती ) करके ढकते हुए - सदा मुखको, तथा किसीकारण मुख पत्तीको अलग करें तो, हाथ मुंहके अगा
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