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(१९६) जूठ आदिकसें-मनका मलीनताका, विचार, .
॥फिर. ओ. १३ से-विधिपूर्वक, धर्म प्रीतिसे, परस्पर मिल. के, शास्त्रार्थ किया करें । मनुष्य जन्मका यहही फल हैकि-सत्या सत्यका,निर्णय करे,इत्यादि । यदि इस पुस्तक के बनानेमें-जानते, अजानते, सूत्र कर्ताओ के-अभिप्रायसे, विपरीत लिखा गया हो तो-(मिच्छामि दुकडं)
समीक्षा—पाठकवर्ग ! निंदा, जूठ और दुर्वचन, सहित पुस्तक लिखने वालेको, और वांचने वोलको-अंतःकरण मलीन होनेसें, पाप लगता है, यह बात तो सत्यही है, परंतु हमको तो इस लेखकी लिखने वाली ही, प्रथमयही कार्य करने वाली दि. खती है, क्यों कि-जिस जिनेश्वर देवकी-प्रतिमा को, जिनेश्वर सरखी मानके, लाखोभक्त, अपना आत्माका मलीनपणा दूर करने को भक्तिभावसे पूजन कर रहै है, उन सर्व पुरुषों का-अंतःकरण मलीन करनेके वास्ते, इस ढूंढनीने जान बजके, कई वर्षोंतक, प्रथम अपना ही अंत:करण महा मलीनरूप बनाके, यह महा पापका थोथा पोथा रूपकी-रचना किई,तो पिछे इनके जैसी ते दूसरी मलीन अंतःकरणवाली कौन ? ___अगर जो यह दूंढनी-महा मलीन अंतःकरण करके जूठा थोथा पोथाकी रचना, करनेकी प्रवृत्ति न करती, तो हमकोभी-हमारा तत्त्वका विचार, और ध्यान समाधिको-छोडकर, इनका पाप, दूर करनेकी-कोईभी आवश्यकता नहीं रहती, परंतु यह ढूंढनीही पापको ढूंढती है और लोकोंको-उपदेश देके, अपना साध्वीपणा दिखा रही है ॥
अब इनका साध्वीपणा देखोंकि-प्रथम जिनप्रतिमाकोतो-जड, पाषाण, पहाड,-आदि दुर्बचनसे तो, उच्चार करती है । और जिनशासनके आधारभूत महान महान् आचार्यों कोतो, हिंसाधर्मी
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