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जूठ आदिकसे-मनका मलीनताका, विचारः (१९५ ) क्याहै, ? और आधाही श्लोकका अर्थ करके-धर्मेति व्याहरंतं इसपदका अर्थतो-कियाही नहीं, क्योंकि-ढूंढक मतमें, धर्मलाभ, ही देनेके वास्ते नहीं है तो,फिर अर्थही करेंगे क्या ? तो भी ढूंढनी, अपना ढूंढक मतको-बेदव्यासतक, पुहचानेका प्रयत्न करती है ? हे ढूंढनी ऐसे अघटित प्रमाण देती वखते तूं कुच्छभी विचार कर. ती नही है ? तुमजो बने हुये है सो वनेही है, किस वास्तें ऐसे जूठे प्रमाण दके, आपना उपहास्य करातेहो ? जो सत्य है सोई सत्य रहेगा, कुच्छ पीतलका सोना नही होजाता है. ३ ॥
ढूंढनी--पृष्ठ. १७२ ओ. ५ से-निंदा, जूठ,दुवर्चन, आदि सहित, पुस्तक छपनेमें, पाप लगता होगा ? वैशाप्रश्न उठायके, उत्तरमें लिखती है कि अवश्य लगता है, क्योंकि लिखने वालेका, और वांचने वालेका, अंतःकरण मलीन होनेसें ॥
॥फिर. पृष्ठ. १७३ ओ. ६ से-अपने साधु स्वभावसे, विचारें कि-निरर्थक, निंदारूप, आत्माको--मलीन करने वाली, पुस्तक बनानेमें, व्यय करेंगे, उतना समय, तत्व के विचार, व, समाधिमें, लगायेंगे । जिससे पवित्रात्मा हो । मानही श्रेष्टहै ।। .
दोहामूर्खका मुख बंबहै, बोले वचन भुजंग । .. ताकी दारू मौनहै, विष न व्यापे अंग । १ । यह समन कर-न लिखे, परंतु वांचतेही-क्रोध आनसेभी तो, कर्मबंधे ॥
फिर. पृष्ठ, १७४ ओ. २ से-परंतु मेरी तो सब भाइयोंसे, प्रार्थना है कि-न तो ऐसें पुस्तकें छापो, न छपाओ, क्योंकि-जैनकी निंदा करनेको तो-अन्यमतावलंबी ही, बहुत हैं, तुम जैनी ही-परस्पर निंदा, क्यों करते कराते हो ।।
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