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( १७६) पूर्वसें-पश्चिम, दोडना. __ समीक्षा-पाठकवर्ग ! ढूंढनी लिखती है कि-'. जैनतत्वाद
का स्वरूप तो मैं-ज्ञान दीपिका, लिख चूकी हूं, वैसा लिखती वखत कुछ भी विचार नहीं किया होगा ! क्योंकि-इनकी ज्ञान दीपिका तो, गप्प दीपिका समीरके ( अर्थात् पवनके ) जपाटेमें, सर्वथा प्रकारसे बुज गइ है कि, न तो रहीथी वत्ती; और न तो रहने दियाथा-तैल, तो पिछे अपनी ज्ञानदीपिका-दिखाती ही कैसे है ? । अगर जो उसमें, तैल, और बत्ती, रह गई होती तो, क्या ! फिर जगाई न लेती ? परंतु जगावे क्या कि जिसमें कुछ रहा ही नहीं।
॥और लिखती है कि, अर्थके अनर्थ, हेतुके कुहेतु, कैसे किये है ? । जब तेरेको उसमें अर्थके अनर्थ, और हेतुके कुहेतु दिखातबतो प्रथम ही हमको भी दिखा देती, जो हम भी देख. लेते । अगर जो यह तेरा कहना-ठीक ही ठीक, होता तो, प्रथम उनका उत्तर देके, पिछेसे ही यह नवान धत्तंग खडा करती, तो योग्य ही गिना जाता ? परंतु सो तो तूने किया ही नही है । इस वास्ते सिद्ध है कि-जो जो उसमें लिखा है सो, सभी ही सत्यही सत्य लिखा गया है,। क्योंकि-जो जो तुमेरा जैन मतसें विपरीत कर्त्तव्य, और केवल जुठा बकवाद है, उनकाही उसमें केवल दिग्दर्शन मात्र किया गया है, ओर जूठका फल दुगतिरूप ही होता है, सोई कहा है, किस वास्ते जुठ लिखते हो ?
॥ और तूंने जो उनका उत्तर देना छोड देके, यह नवीन जूठा वचनोका-पूंज इकट्ठा किया है, सोई तेरा उदाहरण जैसा तंने ही किया है । अगरजो सम्यक्क शल्योद्वारका, और गप्प दीपिका समीरका, लेख अनुचित होता तो तूं प्रथम उनकाही उत्तर देनेमें प्रवृत्ति करती ? परंतु यह कुपत्ती रनके जैसा आचरण
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