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( १६४ ) अथ तृतीय विवाह चूलियांका.
कदापि योग्यही नहीं || फिर पृष्ट. ६९ में लिखती है कि सम्यक्क दृष्टिभी पूजते है मिथ्या दृष्टि भी पूजते है। फिर पृष्ट. ७१ में लिखती है कि सूत्रों में मूर्तिका पूजन- सम्यक्क व्रतादिमें कही नहीं चला। फिर पृष्ट. ७५ में - मंदिरका पूजन - सम्यक्क धर्मका लक्षण होता तो सुधर्मा स्वामी - अवश्यही लिखते । फिर पृष्ट ७६ में देश, नगर, पुर, पाट नमें - कत्रिम प्रतिमाका अधिकारही नहीं || फिर पृष्ट ९६ में - तीर्थकर देवकी मूर्तिका - पाठही नहीं ।। फिर पृष्ट १२० में - जिन मूर्तिको मस्तक जूकाना, मिथ्यात्व है |
फिर पृष्ट १२८ - मस्त हुई लिखती है कि क्या मंदिर, मूर्ति पूजा जैन सूत्रोंमें सिद्ध हो जायगी || वैसे वैसें, जो मनमें आया सोई बकवादही करना सरु किया, परंतु एक लेशमात्र भी विचार करनेमें नहीं उतरी है। सो न जाने इनके आत्म प्रदेशमें मिथ्यात्व कैसे गाढपणे व्याप्त हुवा होगा ? जो सिद्धांतका- एक अक्षर मात्रकाभी, विचार नहीं कर सकती है ? ॥ खेर, जैनका सिद्धांत यह है कि प्रथम - सम्यक्त्वकी प्राप्ति होये बाद, पिछे ज्ञानकी प्राप्ति, और पीछे चारित्रकी प्राप्ति, उनके बाद जीवोंको - मोक्षकी प्राप्ति होती है. । ययाच सूत्र,
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सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः इति तस्वार्थ महा सूत्रं । इहां कहनेका प्रयोजन यह है कि सम्यक्त्वधर्मकी प्राप्ति करानेका निमित्त भूत, भव्य जीवोको - वीतराग देवकी मूतिमी है ? और अभयकुमारने अनार्यदेशमें मूर्त्तिको, भेजकरके-आ कुमारको सम्यक्त्वकी प्राप्ति करानेका लेखोभी है, सोई हेतु शात्रकार - जगें जगें दिखाते भी आते है । और यह ढूंढनीभी-लिख ती ही है | परंतु विशेष यह है कि बेभानमेही बकवाद करती चली जाती है देखो पृष्ट १३१ में ढूंढनीभी लिखती है कि मूर्ति
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