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( १४६ ) सावद्याचार्य और ग्रंथोंका विचार.
यह लिखना - उन्मत्तपणेका है कि, योग्य रितीका है ? सो तोवाचक वर्गही, परीक्षा - कर लेवेंगे ॥
फिर लिखती है कि-नंदी जीवाले, सूत्रोंके नामसे -ग्रंथ है भी, तो वह - आचार्य कृत- साल, संवत्, कर्त्ताका नाम लिखा है, इस कारण- प्रमाणिक नहीं है । यहभी विचारशून्या ढूंढनीजीका लेख विचारने, जैसाही है, क्योंकि - प्रथम - जितने जैनके विशेष प्रकार करके सूत्रों है, सोभी- भगवान् महावीर स्वामीजीके पीछे - ९८० वर्षे, "देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण " महाराजा वगैरह - अनेक आचायौने, एकत्र मिलकेही - लिखे हैं. तो साल, संवत्, तो सभी सूत्रों पैं मगटपणे है, और उस वख्तही अनेक आचार्योंने, मिलकर - एक कोटी, पुस्तकों को लिखवा के - उद्धार, कराया है. उन सबको जबनिरर्थक माने जावे, तब तो जैनमतकाही - निरर्थकपणा, हो जायगा. इस वास्ते यह लेखभी विचार शून्यपणेकाही है ? ॥ और अपना लेख जो - मूढपणे लिखा, सो तो प्रमाण, और महा पुरुषोंका लेख - प्रमाण नही, वेसा लेख लिखनेवालोंका छुटका कौनसी गतिमें होगा, जो महा पुरुषोंका अनादर करके, सर्व जगेपर अपair पंडितानीपणा दिखाती है | फिर लिखती है कि - जिस २ सूत्रमेंसे, पूर्वपक्षी - चेइय, शब्दको ग्रहण करके, मूर्त्ति पूजाका पक्षग्रहण करते है, उस २ का मैंने, सूत्र के संबंधसे- अर्थ, लिख दिखा या || पाठक वर्ग ! यह हमारी कई हुई समीक्षासे - विचार किजीये कि, सूत्र से संबंधवाला, ढूंढनीका किया हुवा अर्थ है कि-सर्व महा पुरुषोंसे निरपेक्ष होके, केवल अपनीही पंडिताईको प्रगट किई है ? | फिर लिखती है कि अपनी जूठी कुतर्कों का लगाना. और निंदा गालियोंका-देना नही किया है || देखिये इसमें भी ढूंढनीका भाइपणा कितना है कि वीतराग देवके तुल्य वीतराग
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