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सावद्याचार्य - और ग्रंथों.
तर हुये बाद, जिसका उत्तरपै उत्तर देनेके वास्ते तुमको कुछ भी जभ्या नही रहती है, तो पीछे तुम किस वास्ते नवीन २ उपाधि करके वारंवार बहार आते हो ?
॥ और शत्रुंजय महात्म्यकी - गाथा लिखके जो तूंने चिकित्सा किई है, सोभी विचार शून्य पणेसे किई है । और इस गाथाके विषयमें, १०० पुत्रवालेका दृष्टांत दिया है-सोभी निरर्थक हैं, क्योंकि- भगवानकी हयातीमें, मोक्ष गये, यह तो पूरण भाग्यशालीपणेका सूचक है, सो १० पुत्र वालेके साथ कभी न जुड सकता है, किसवास्ते अगडं वगड लिखती हुई, पंडितानीपणा दिखाती है ? || फिर लिखती है कि ऐसे वाक्योंपर, मिथ्यातीही - श्रद्धान, क रते है | इसमें भी देख तेरी चातुरी - कोइ तो सिद्धांतका एकवचन न माने उनकेपर, अथवा एकाद ग्रंथको न माने उनके पर तो मिथ्यात्वका आरोप, करते हैं परंतु तूं ढूंढनी तो, हजारो महान् आचायोकी - अमान्य करके, और जैन मतके लाखो ग्रंथोको-अमान्य करके, महा मिथ्यात्वनी - बनी हुई, जो जैनाचार्य महा पुरुबोको, और जैन मतके प्रमाणिक सर्व शास्त्रोंको, सर्वथा प्रकार से आदर करनेवाले है उनको मिथ्यात्वी कहती है, क्या तेरी अपूर्व चातुरी है कि अपणा महान् दोषको, छुपानेके लिये, जो सर्वथा
कारसे - अदूषित है, उनको अछता- दोष देके, दूषित करनेको चा हती है। परंतु जो अदूषित है सो तो, कभी भी - दूषित, होई सकते ही नही है । किम वास्ते अपणी वाचालताको प्रगट करती है ? ||
फिर ढूंढनी - सूत्त छोखलु पढमो || इस गाथाका मन कल्पितअर्थ, करती है कि - प्रथम सूत्रार्थ कहना । द्वितीय-निर्युक्ति के साथ कहना, अर्थात् युक्ति, प्रमाण, उपमा, ( दृष्टांत ) देके परमार्थकोमगढ़ करना । तृतीय- निर्विशेष अर्थात् भेदानुभेद खोलके, सूत्रके
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